स्त्री विमर्श के पहरुआ: गोस्वामी तुलसीदास
सुसंस्कृति परिहार
हम सभी जानते हैं कि तुलसीदास का युग सामंतवादी था ।निम्न जातियों की तरह ही आमतौर पर स्त्रियों के साथ सलूक होता था। उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाता था यहाँ तक कि उन्हें अपने इष्ट की उपासना ,दर्शन ,सानिध्य और वार्तालाप के अधिकार भी नहीं थे। तुलसी ने रामचरितमानस में इन परम्पराओं को तोड़ा यही वजह है कि मानस में वे राम से मिलने, उनका स्नेह पाने अग्रणी पंक्ति में नज़र आती हैं । जनकपुर,अयोध्या से लेकर चित्रकूट की राह पर स्त्रियों की भीड़ ही भीड़ दृष्टिगोचर होती है।जितनी आत्मीयता तुलसी ने परस्पर ग्रामीण स्त्रियों में दिखाई है उतनी राम,भरत और निषाद में भी नज़र नहीं आती ।वे ग्रामीण स्त्रियाँ ही पूछ सकती थीं-“कोटि मनोज लजावन हारे,सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे “और सीता ही उनके प्रश्नों का उत्तर दे सकतीं थीं–
बहुरि बदन बिधु अंचल ढांकी,
पियतन चितै भेहि कर बांकी ।
खंजन मंजु तिरीछे नैननि,
निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सैननि।
तदुपरांत ही लोग राम के चरणों को नमन् करते हैं।उनसे भक्ति का वरदान मांगते हैं। ये स्त्रियाँ सीता के पैर तो पड़ती हैं पर उनसे आशीर्वाद न लेकर उल्टा उन्हें ही आशीष देती हैं—
अति सप्रेम सिय पायं परि,
बहु विधि देहिं असीस।
सदा सुहागिनी होहु तुम,
जब लगि महि अहि सीस।
राम की अयोध्या वापसी पर भी स्त्रियाँ सबसे आगे हैं ।रघुवीर को आते देखकर अयोध्या नगर में समुद्र की तरह ज्वार आ गया है और इस ज्वार की बढ़ती हुई तरंगें स्त्रियां ही हैं ।रामचरितमानस का यह दोहा अद्भुत है –
राका ससि रघुपति पुर,
सिंधु देखी हरखान ।
बढ़त कोलाहल करत जनु,
नारि तरंग समान।
दूसरी ओर राम के विरह का सूर्य अस्त होने पर तुलसी अयोध्या के तालाब में स्त्रियों को कुमुद की तरह खिला हुआ देखते हैं ।इन सबको तुलसीदास अपावन समझते हों तो इससे ज्यादा आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है? सूरदास की तरह तुलसी की स्त्रियाँ कृष्ण को देखने के लिये पति को घरों में छोड़कर भाग जाती हैं-
तुलसीदास जेहि निरखि ग्वालिनी,
भजिजात पति तनय बिसारी।
इससे यह तो नहीं मालूम होता कि पति ही ईश्वर है। लेकिन सामंती समाज में पति भक्ति पर टिप्पणी रामचरितमानस में देखने मिलती है जहां उमा अपनी मां से बिदा लेती है, में देखी जा सकती है-
जननी उमा बोली तब लीन्ही,लै उद्दंग सुन्दर सिख दीन्ही ।
करेहु सदा संकर पद पूजा, नारि धरम पति देव न दूजा ।।
वचन कहत भरि लोचन बारी, बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी।
कत विधि सृजी नारी जग माहीं ,पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ॥
मैं अतिप्रेम विकल महतारी ,धीरज कीन्ह कुस मऊ विचारी ।
एक तरफ पति सेवा का उपदेश, दूसरी तरफ पराधीन नारी के लिये स्वप्न में भी सुख न मिलने पर क्षोभ। ये दोनों पक्ष साधने की कला तुलसी को छोड़कर और कहीं नहीं है, जो लोग ढोल,गंवार, शूद्र पशु नारी पंक्ति को वेदवाक्य समझते हैं। उन्हें इन पंक्तियों पर विचार करना चाहिए—
कत् विधि सृजी नारि जग माहीं,
पराधीन सपनेहुं सुखनाहीं।
तुलसीदास स्त्रियों को पराधीन जानते हुये भी उन्हें पशुओं की तरह ताड़न की अधिकारी कहें तो इससे अधिक निर्ममता और क्या हो सकती है क्योंकि जैसा ममतापूर्ण हृदय तुलसी ने पाया है यह उचित नहीं लगता। डॉ० रामविलास शर्मा मानते हैं –ढोल, गंवार ,शूद्र पशु नारी वाली पंक्ति समुद्र की बातचीत में आई है जहाँ वह जल होने के नाते अपने को जड़ कहता है और इस नियम की तरफ इशारा करता है कि जड़ प्रकृति को चेतन ब्रह्म ही संचालित करता है ।वहाँ एकदम अप्रसांगिक ढंग से यह पंक्ति आती है । नि: सन्देह यह उन लोगों की करामात है जो यह मानने तैयार नहीं हैं कि नारी पराधीन है और उसे स्वप्न में भी सुख नहीं है।
तुलसी ने ही एक स्त्री शबरी को यह अधिकार दिया था कि वह जूठे बेर राम को खिलाये ।दूसरी ओर ‘रामलला नहछू ‘में दलित स्त्रियों को भी कौशल्या पर कटाक्ष करने का हक दिया–
काहे राम जिव सांवर लछिमन गोर हो
कीदहु रानी कौसिलाहि परिमा भोर हो
सामंती व्यवस्था में स्त्रियों के लिये एक धर्म है तो पुरूषों के लिये दूसरा है ।तुलसी के रामराज्य में दोनों के लिए एक ही नियम है-
एक नारीव्रत सब झारी,
ते मन वचक्रम पति हितकारी।
इस तरह पुरूषों के विशेषाधिकार को न मानकर तुलसीदास ने दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया था। लेकिन विशेषाधिकार वालों ने ढोल,गंवार, शूद्र,पशु नारी को तो याद रखा और एक नारी व्रत होने की बात चुपचाप पी गये।
वर्तमान समय में आज भी नारी अधिकारों से वंचित है ।पराधीनता में उसे सुख नहीं है ।तरह तरह की मीठी बातों से उसे भुलावा दिया जाता है लेकिन उसकी दासता छुपाये नहीं छुपती ।तुलसी दास के समय में ऐसी परिस्थितियां नहीं थीं कि पराधीनता के बंधन तोड़े जा सकें ।वे केवल इस पराधीनता पर अपना क्षोभ प्रकट कर सकते थे जिसमें पुरूष भी एक नारी व्रती हो ।राम के चरित्र में उन्होंने यही दिखाया ।यह दूसरी बात है कि हिन्दी आलोचना में जितनी चर्चा सीता के पतिव्रत की है उतनी राम के स्त्रीव्रत की नहीं ।
सामंती समाज में विवाह पहले हो जाता है ।प्रेम बाद में शुरू होता है।तुलसीदास ने राम सीता विवाह में यह दिखलाया है कि विवाह प्रेम की परिणति है यद्यपि सीता की प्रीत पुरातन है फिर भी लोकव्यवहार की दृष्टि से ‘कंकन किंकिन नुपुर धुनि’ में राम का मदन दुदुंभी सुनना,सियमुख की तरफ नयन चकोरों को देखना और सीता द्वारा राम को हृदय में बिठाकर पलक कपाट लगा लेना आदि क्रियाओं का वर्णन तुलसी के प्रेमी मन का ही नहीं बल्कि उनके रूढ़ियों को तोड़ने वाले साहस का परिचय भी देता है। तय है , कि तुलसी केवल भक्त नहीं हैं वे प्रेम और सौन्दर्य के भी क्रांतिकारी कवि हैं ।विवाह मंडप में सीताजी की तन्मयता का कितना सजीव और बारीक चित्र उन्होंने खींचा है वह दुर्लभ है–
राम को रूप निहारति जानकी,
कंकन के नग की परछाहीं।
यातै सबै सुधि भूल गई,
कर टेक रही पल टारत नाहीं ।
अपने बरवै छंदों में तो तुलसी ने अवध के ग्राम गीतों की मिठास उड़ेल दी है —
का घूंघट मुख मूंदहू नवला नारि
चांद सरग परसोहत यहि अनुहारि
गरब करहु रघुनंदन जनि मन मांह
देखहुं आपनि मूरति सिय कै छांह
उठी सखी हंसी मिस करि महि मृदु बैन
सिय रघुवर कै भये उनींदे नैन।
तुलसीदास ने जनसाधारण के सौन्दर्यबोध की जैसी मनोहारी ,सुकुमार व्यंजना की है ।वह हिन्दी साहित्य में अनुपम है ।आज की वर्तमान व्यवस्था में मनुष्य की प्रेम और सौन्दर्य की कोमल भावनाएं बुरी तरह कुचली जातीं हैं। विवाह का आधार सम्पत्ति और कुलीनता है ।प्रेम करने प्रेयसी अलग होती है और बच्चे पैदा करने वाली पत्नी अलग ।तुलसी की नज़र सब समस्याओं पर है।
निष्कर्ष तौर पर, यह कहा जा सकता है कि तुलसी ने अपने काव्य में स्त्री को सामंती बंधनों से मुक्ति की राह दिखाई क्योंकि वे भलीभाँति जानते थे कि जब तक स्त्री इन बंधनों में जकड़ी रहेगी तब तक उसमें सौन्दर्य और प्रेम की भावनाएं सहज रूप से विकसित नहीं होंगी और नारी तब कवियों की नायिका मात्र ही रहकर श्रम करने वाली समान अधिकार प्राप्त समर्थ नारी न बन सकेगी ।अतएव नारी मुक्ति तुलसी काव्य की मूल अवधारणा है ।जिसमें नारी कल्याण सर्वोपरि है।उनके काव्य साहित्य में स्त्री स्वातंत्र्य की बात बहुत महत्वपूर्ण है।उस पक्ष को सामने लाने की आवश्यकता है।उस सामंती दौर में स्त्री की मुखरता और साहस पूर्वक विचार की अभिव्यक्ति तुलसी को स्त्री विमर्श का पहरुआ सिद्ध करती है।