राष्ट्रवादः विकास का रथ
राष्ट्रवाद व्यक्ति की आत्मा का विराट रूप है। राष्ट्रवाद राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना है। व्यक्ति की सार्थकता राष्ट्र के सामूहिक जीवन को संवारने में होनी चाहिए, सांसारिक जीवन में राष्ट्रहित माता के तुल्य होती है। राष्ट्रवाद कोई मूर्त अवधारणा नहीं है। बल्कि यह एक तरह की विचार या भावना है जो हमारे उन महापुरुषों को याद दिलाती है जिन्होंने राष्ट्रवाद के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। राष्ट्रवाद की संकल्पना आत्म निर्णय के सिद्धांतों से प्रभावित होना चाहिए। जिस प्रकार से व्यक्ति और राष्ट्र का संबंध जीवित प्राणी के अंगों से होता है उसी प्रकार से व्यक्ति की आत्मा का संबंध राष्ट्रवाद से होना चाहिए।
राष्ट्रवाद कोई कोरा राजनीतिक कार्यक्रम नहीं होता है यह तो हमारी आत्मा का संबल होता है जिसकी कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती है। न ही भौतिक भूभाग होता है, ना ही कोई बौद्धिक संकल्पना होती है, न तो राष्ट्रवाद रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला में प्रयोग किया जाने वाला कोई कृतिम उपकरण होता है ना ही राष्ट्रवाद भीड़ का मनोविज्ञान होता है, राष्ट्रवाद स्वयं में साक्षात साक्षी होता है जो सदियों से बड़े प्यार दुलार से हमारे मन में शनैः शनेः विकसित होता आया है।
राष्ट्रवाद की नई परिभाषा का नया मूल मंत्र अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी का समूल उन्मूलन करना है। कल्याण की कामना करना ही राष्ट्रीय आध्यात्मिकता का आधार स्तंभ है। राष्ट्रवाद के लिए समर्पण – आत्म निर्णय की आक्रामक शक्ति से भी सशक्त होनी चाहिए। राष्ट्रवाद के रास्ते में आपसी प्रतिस्पर्धा, संदेश, छल- छंद नही होना चाहिए। राष्ट्रवाद राष्ट्रहित में राष्ट्रप्रेम की लालसा लिए प्रस्फुटित होना चाहिए। राष्ट्रवाद विकास कि वह विस्तारित सीमा है जिसके कई अनंत आकाश हैं आकाश में विकासात्मक राष्ट्रवाद का रथ दसों दिशाओं में विचरण करना चाहिए। यही यथार्थ राष्ट्रवाद का शुभ संदेश है। आए हम राष्ट्रवाद के लिए सर्वस्व समर्पित कर दें।
सत्य प्रकाश सिंह
केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज
प्रयागराज उत्तर प्रदेश