थक चुकी हैं हाथों की अंगुलियाँ…

विचार—विमर्श

अब थक चुकी हैं, हाथों की अंगुलियाँ,
रोज लिखते लिखते विनम्र श्रद्धांजलि।
आखिर! अब कितना तू निर्मम बनेगा,
अपनों की प्रतिदिन हो रही ऐसी बलि।।

स्कूल बने भूतखाने, बेंचों पर हैं धूल,
सुनाई न दे, बच्चों की किलकारियाँ।
हर दिन बढ़ रहे हैं, मौत के आकंड़े,
ज़िंदगी में बढ़ी हैं, कितनी दुश्वारियाँ।।

गुम हो जा रहे हैं, ढेरों दोस्त रिश्तेदार,
चारों तरफ छाई उदासी और निराशा।
चल रही जैसे मौत के फिल्म की रील,
खलनायक जैसे हो मौत का प्यासा।।

हम मनुज है, कदापि न मानेंगे यूँ हार,
दुबारा किया है, तूने शक्तिशाली प्रहार।
साहस और धैर्य की, तू ले रहा परीक्षा,
कितनी जहरीली तुमने चलाई बयार।।

साहस और धैर्य रख मुकाबला करेंगे,
तुम्हें तो पराजय करनी होगी स्वीकार।
अमन व चैन की बंसी बजेगी जहां में,
ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ होंगी सभी के द्वार।।

लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
‘नव किरण’ प्रकाशन
बस्ती (उत्तर प्रदेश)

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