साहित्यकार होता है राष्ट्र का पथ-प्रदर्शक

विचार—विमर्श

प्रताप नारायण सिंह
इतिहास इस बात का साक्षी है, जब कभी कोई देश राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक संकट के दौर से गुजरा है तो उस समय उस देश के साहित्य एवं साहित्यकारों ने बिना किसी लाग-लपेट के भविष्य में उनके जीवन में खुशहाली लाने के लिए मार्ग दर्शन कर तत्काल उनके हौसले की आपफजाई करने में उनकी कलम ने चमत्कार किया है। मानव के कर्तव्य एवं अध्किार का बोध् भी कराता है।

साहित्य एवं साहित्यकार लोगों को अंध्कार में भटकने के बदले आशा की किरणों के साथ उनका मार्ग दर्शन करने में समर्थ होता है। चाहे यूरोप के देश हों या एशिया के देश हों। सोवियत रूस में मैक्सिम गोर्की ने जार शाही के खिलापफ अपने साहित्य के माध्यम से नाटक हों, उपन्यास हों या पिफर कहानी हों, लोगों की चेतना को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

इसी प्रकार भारत जब गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ था, बड़े पैमाने पर भारतीय जनता का शोषण हर क्षेत्रा में बदस्तूर जारी था तो तत्कालीन कुछ साहित्यकारों ने अपने साहित्य के माध्यम से उन्हें गुलामी की जंजीर को तोड़ने के लिए कहानियाँ, कविताएँ, उपन्यास, लेख तथा नाटक के माध्यम से जनता को जगाने का जोखिम भरा कार्य करने में कभी पीछे नहीं रहे।

भारत की जनता वर्षों से गुलामी के कारण उनके अन्दर निराशा का वातावरण कायम हो चुका था। विपत्ति उनकी नियति बन चुकी थी। उसी दौर में प्रेमचन्द, निराला, यशपाल, जयशंकर प्रसाद, शिवपूजन सहाय, नागार्जुन एवं आर.सी. प्रसाद जैसे साहित्यकारों ने तत्कालीन नैराश्य के वातावरण में जीने वाले नौजवानों के भविष्य में ज्ञान रूपी प्रकाश की किरणों के द्वारा उनके नैराश्य को या उनके अन्ध्कार को दूर करने के लिए अपने साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से उनके अन्दर चेतना विकसित करने का काम किया है।

आज भी हमारे देश में अनेकों प्रगतिशील लेखक वस्तुगत साहित्य का सृजन करके श्रम सीकड़ बहाने वालों के पक्ष में रचना कर रहे हैं। खेत-खलिहानों, खेतों मेे लहलहाते गेहूँ तथा धन की बालियाँ, सरसों के पफूलों को देखते हुए किसानों के पक्ष में साहित्य सृजन कर रहे हैं। दूसरी तरपफ कुछ तथाकथित ऐसे साहित्यकार तथा पत्राकार हैं, जो परिवार के सदस्यों को उफँचे पदों पर बिठाने के लिए लगातार सत्ता की प्रशंसा के पुल बांधकर अपनी रचना कर रहे हैं। धरा के प्रतिकूल रचना करने वाला ही सही साहित्यकार, लेखक या कवि होते हैं। धरा की दिशा में रचना करना अथवा तैरना तो सिपर्फ लाश ही होती है।

आजादी के बाद से ही इस देश के प्रगतिशील साहित्यकारों की कलम अनवरत दिशाहीन राजनीति के खिलापफ चल रही है। यह बात सही है कि कई साहित्यकारों को प्रतिक्रियावादी ताकतों का शिकार होना पड़ा है। अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध् लगाने के लिए कुछ गैरलोकतांत्रिक ताकतें तरह-तरह की साजिशें कर उन्हें परेशान और तंगो-तबाह करने की लगातार कोशिशें कर रही हैं। साहित्यकार देश के वर्तमान और भविष्य का सृजन करने की दिशा में अपनी लेखिनी का प्रयोग करते हैं।

21वीं सदी में भारत की सत्ता में बैठी सरकार देश के अन्दर सम्प्रदायवादी ऐजेंडा के माध्यम से देश के लोकतांत्रिक बनावट को कमजोर करने की दिशा में लगातार कदम बढ़ाती जा रही है। देश की साझी संस्कृति कमजोर पड़ती जा रही है। धर्मिक उन्माद बड़े पैमाने पर पैफलाये जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में भारत के प्रगतिशील साहित्यकारों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है। भारतीय संविधन की आत्मा धर्मनिरपेक्षता है। आज धर्मनिरपेक्षता के प्रति सत्ता की दूसरी परिभाषा बनती जा रही है। सत्ता पर स्थायी रूप से काबिज होने के लिए हिन्दुत्व का एजेन्डा प्रमुख हो गया है। लेकिन खुशी की बात यह है कि इस देश में आज भी ध्र्मनिरपेक्ष ताकतें काफी मजबूत हैं। ये ताकतें मजबूती के साथ गांगी-यमुनी संस्कृति को बचाने में अपनी कुर्बानी देने को तैयार हैं। केन्द्रीय सत्ता में बैठी सरकार धर्मनिरपेक्ष ताकतों को कमजोर करने के लिए उन्हें देशद्रोह के मामले में पफंसाकर परेशान करने की साजिश कर रही है।

देश के नौजवानों के सामने आजादी के लिए फांसी के फंदे को हंसते हुए चूमने वाले भगतसिंह, राजगुरू एवं सुखदेव की शहादत याद है। उनके आदर्शों को आज भी भारतीय नौजवान अपना पाथेय बनाकर साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलापफ आन्दोलन कर रहे हैं। ध्ीरे-ध्ीरे देश के अन्दर विभिन्न जन संगठनों के आन्दोलन तेज हाते जा रहे हैं। देश के दर्जनों ट्रेड यूनियन तथा भारत के किसान काला कानूनों के खिलापफ 125 दिनों से दिल्ली के सभी बोर्डर पर आन्दोलनरत हैं। इस आन्दोलन में 160 किसान काल कवलित हो चुके हैं। उन्होंने अब भूख हड़ताल पर भी बैठने का संकल्प लिया है। देश भर के छात्रा-नौजवान, देश में बढ़ती बेरोजगारी के खिलापफ आन्दोलन कर रहे हैं। 26 मार्च को भारत बंद किया जा चुका है।

सरकार को ऐसी हठधर्मिता का परित्याग कर किसानों के साथ समझौता कर उन्हें खेती करने के लिए घर जाने का अवसर प्रदान करना चाहिए। आन्दोलन स्थल पर भी देश के साहित्यकारों की कलम किसानों के पक्ष में आवाज उठा रही हैं। गीतों के माध्यम से, नाटकों के माध्यम से तथा सोशल मीडिया भी किसानों के पक्ष में ईमानदारी के साथ उनकी मांगों का पुरजोर समर्थन कर रहे हैं। साहित्य या साहित्यकार हारता नहीं है। वह न केवल वर्तमान के लिए लड़ता है, बल्कि भविष्य के लिए भी लड़ता है।

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