यूँ ही नहीं की जाती है कविता

विचार—विमर्श

यूँ ही नहीं की जाती है कविता
यह सोच- सोच कर जीवन बीता
कई तरह के विचार आते -जाते
फिर भी मन है कुछ रीता-रीता

कोई कहता विधा पूर्ण है
कोई कहता भाव सम्पूर्ण है
विचारों का है क्या स्थान
कोई कहता भाषा गौण है

गीतों का कोई है दीवाना
ग़ज़लों का कोई है परवाना
कोई रमता है दोहों में
छंदों का गाए कोई तराना

प्रकृति में कोई रम जाता
सौंदर्य में कोई थम जाता
सुख-दुःख को कोई देखे
भक्ति में कोई रम जाता

दर्द में कोई चिल्लाता है
हिंसा में कोई थर्राता है
जगता है दया का भाव
कविता कोई लिख जाता है

अन्याय के विरुद्ध बिगुल बजाती है
मानवता की अलख जगाती है
जनक्रांति की अग्रदूत कविता
देश प्रेम की ज्योति जलाती है

कभी आह कहती है कविता
कभी वाह कहती है कविता
हर विन्दु पर नज़र रखती
कभी चाह कहती है कविता

सूरज की तरह जलती है कविता
नदी की तरह बहती है कविता
कण-कण में कविता समाहित
धरती की तरह सहती है कविता

यूँ ही नहीं की जाती है कविता
रामायण हो चाहे हो गीता
जीवन समर्पण हो जाता है
अक्षय ज्ञान से कौन है जीता

••• भारमल गर्ग सांचौर

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