युवा पीढ़ी और उन्मुक्तता

विचार—विमर्श

राजकुमार अरोड़ा गाइड

युवा पीढ़ी बंधन में बंध कर नहीं रहना चाहती। उसे उन्मुक्तता, स्वछंदता,आज़ादी चाहिए। जो उनके मन में आये उसे वही ही तो करना है, बिना उचित अनुचित का विचार किये,भावावेश में आ कर वह बुजुर्गों का बार बार अपमान कर देती है। उसे एहसास कराया जाए तो उसे माता पिता का प्यार अहंकार से परिपूर्ण ही लगता है।यौवन एक ऐसा तीव्र बहता दरिया है,जो कभी साहिल की तलाश में नहीं रहता बल्कि जब भी उसे साहिल की सीमा में बांधने का प्रयास किया जाता है तो वह साहिल को तोड़ कर विद्रोह कर देता है- अंध विशवासों एवं पूर्वाग्रह से ग्रस्त बुजुर्ग पीढ़ी के विरूद्ध आज की युवा पीढ़ी के अपने आदर्श है, बदलते युग के साथ साथ उसकी नवीन मान्यताएं हैं।

वह चाहता है,जातपात के भेदभाव से मुक्त स्वच्छंद और निष्कपट जीवन संगिनी का प्यार परंतु पुरानी परम्पराओं के बन्धन में जकड़ी बुजुर्ग पीढ़ी इसे अपनी अवज्ञा समझती है,अपमान समझती है। झूठे स्वाभिमान के मद में इन खिलते हुए फूलों की उमंगों को मसल देती है। कुछ युवा समाज के नियमों का विरोध नहीं कर पाते,अपनी इच्छाओं को कुचल कर सब कुछ अंगीकार कर लेते हैं, परन्तु जो युवा साहस कर कुछ नया लाने का प्रयास करते हैं,उन्हें समाज से अलग कर दिया जाता है।

रिश्तों की पवित्रता धूमिल हो जाती है और फिर तो अनायास ही खड़ी हो जाती है- बुजुर्ग और युवा पीढ़ी के बीच अंतर्द्वंद्व से भरी एक वार,यद्यपि कुछ अपवाद भी है,मातापिता बेटे या बेटी की भावनाओं का सम्मान करते हुए उनकी खुशियों को अंगीकार कर लेते हैं,परन्तु जब भी अनबन की सम्भावना बनती है या होती है, वे माँ बाप को कुछ नहीं कह सकते,सब कुछ उनकी मर्जी से ही तो हुआ होता है।

अलगाव आपसी हो या माँ बाप के साथ,कष्टप्रद तो सभी संबंधित जनों के लिये होता है। प्यार,व्यवहार, समन्वय,सामंजस्य तो दोनों तरफ से हो और बना रहे, जहां परवाह है, वहीं तो परिवार है,यही इसका वास्तविक सौंदर्य है और होना भी चाहिए।

केवल जीवन साथी के चयन के समय ही नहीं,बल्कि जिंदगी के हर क्षेत्र में यहां तक कि दैनिक दिनचर्या में भी बुजुर्ग पीढ़ी बाधा बन कर युवा वर्ग के उन्मुक्त विकास में रुकावट बनती है। मैं यह नहीं कहता कि युवा वर्ग अधिक दोषी है या बुजुर्ग पीढ़ी। दुःख और क्षोभ तो इस बात का है कि दोनों ही स्वयं को अधिक बुद्धिमान और ठीक समझते हैं। हालांकि कोई भी माता पिता अपनी सन्तान का अहित नहीं चाहता परंतु जब दोनों का स्वाभिमान टकराता है तो विद्रोह की नौबत आ जाती है।पिता पुत्र, मां बेटी,भाई बहन, सास बहू, ननद भाभी आदि के पावन रिश्तों में बिना सोचे ही महज़ औपचारिकताएं भी ताक पर रख दी जाती हैं और आरम्भ हो जाता है,नवीन और पुरातन मान्यताओं का टकराव,जिसने संयुक्त परिवार को छिन्न भिन्न करके रख दिया है।

मैंने ऐसा भी देखा है कि जब बुजुर्ग पीढ़ी युवा वर्ग के साथ सामंजस्य नहीं रख पाती तो वह अति उदासीन हो कर सामाजिक दायित्व को भूल कर,स्वयं में मस्त हो जाने का अभिनय करके जिम्मेदारियों से विमुख हो जाती है। बुजुर्ग पीढ़ी को चाहिए कि वह बदलते युग के साथ स्वयं को भी यथा संभव बदलने का प्रयास करे,उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि तब और अब में बहुत अंतर आ गया है।

मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूं कि हर माता पिता अपनी युवा सन्तान के हित की दृष्टि से ही उसे कुछ समझने का प्रयास करते हैं परन्तु अल्हड़ मस्त जवानी के जोश में युवा पीढ़ी उचित अनुचित को भूल कर,जो स्वयं को ठीक लगता है, वही करती है,चाहे उसमें लाभ हो या हानि।

कई बार तो हालात यहां तक विकट हो जाते हैं कि पुत्र से सम्बन्ध विच्छेद, लेन देन से कोई वास्ता न रखने के बारे में, अख़बार में छपवाना पड़ जाता है। दोनों को चाहिए कि निज कर्तव्यों और मान-मर्यादाओं के बन्धन में रह कर निर्वाह करें। युवा वर्ग को चाहिए कि बुजुर्ग पीढ़ी का सिर्फ विरोध के लिए विरोध न करके उनकी बात को समझें,उनकी इच्छाओं का आदर करें,वे जो कहते हैं, प्रेमवश ही कहते हैं,किसी भेदभाव से नहीं।

सेक्टर2 बहादुरगढ़ (हरि०)

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