मन की भटकन छोड़ सखे

विचार—विमर्श

• प्रमोद दीक्षित ‘मलय’

उस उपवन जाना कैसा जहां सुमन को तेरी चाह नहीं।
उस तरु से क्या मिलना जो देता प्रीति घनेरी छांह नहीं।
चंचलता चित की त्यागो अलि अब, मन की भटकन छोड़ सखे,
हो सचेत मधुरस के प्रेमी मधुकर यह तेरी राह नहीं।।

मन के आंगन के चमकीले इंद्रधनुष जाने किधर गये।
हृदय-कंज के वारि रजत कण सूखे, ढलक इधर-उधर गये।
प्रीति छंद लिख न पाये उर-भोजपत्र, धवल तन-चादर पर,
मधुर मिलन का सपना टूटा उर सुख-सपने सब बिखर गये।

नित्य प्रेम उपजता अंतर घट स्रोत अनंत पहचानो तुम।
मोह माया-गठरी छोडो गुरुकृपा गोविंद बखानो तुम।
जग-सराय को अपना समझा, जो अपना था वह भूल गये,
भ्रमर ! देह-नेह का आकर्षण त्यागो, शुचि सत्य जानो तुम।

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