भाकपा के क्रान्तिकारी मार्च के 95 वर्ष

डी राजा

वर्ष 1925 में 26 दिसंबर को ब्रिटिश हमलों और औपनिवेशिक दमनों का बहादुरी से सामना करते हुए हमारी पार्टी-भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) की औपचारिक रूप से कानपुर (उत्तर प्रदेश) में भारतीय जमीन पर स्थापना हुई थी।

तब से, यह 95 वर्षों की अवधि गौरवशाली संघर्षों और सर्वोच्च बलिदानों की पार्टी रही है। अब पार्टी अपने गौरवशाली मार्च के 96वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आजादी की लडाई में षड्यंत्र के मामलों, राजद्रोह के आरोपों, गोलियों, जेलों, और फांसी का सामना करते हुए संघर्षों के अगले मोर्चे पर थी। अंग्रेजों और अन्य औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ संघर्ष करने वाले कम्युनिस्टों के खून बहाने की कीमत पर भारत की आजादी हासिल हुई।

आजादी के बाद भी भाकपा दृढता से ऐसे न्याय वाले समाज के लक्ष्य के प्रति कृत संकल्प रही जिसमें सभी को समान अवसर हासिल हो और जनवादी अधिकारों की गारंटी हो जो सभी प्रकार के शोषण को समाप्त करने की राह प्रशस्त करे जिसमें जाति, वर्ग और लिंग सभी शामिल हैं।


भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने वी आई लेनिन के नेतृत्व में हुई महान अक्टूबर क्रान्ति से प्रेरणा ली थी। माक्र्सवादी विचारधारा ने, जिसने विश्व व्यवस्था के विमर्श को पूरी तरह से बदल दिया और रूस में पहली बार समाजवादी राज्य का अनुभव कराया, उन सभी को प्रेरित किया जो भारत से प्यार करते थे और जिन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने के लिए लड़ाई लड़ी। क्रान्ति की राह और लेनिन के आदर्शों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और विशेषकर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आंदोलन पर व्यापक प्रभाव डाला। सभी रंगों के नेताओं ने रूस में हो रहे बदलावों का स्वागत किया परंतु देश के क्रान्तिकारी देशभक्तों के लिए यह एक सोचने का अवसर था कि ब्रिटिश राज के खिलाफ लडाई की उनकीरणनीति क्या होगी और एक बार आजाद होने के बाद आजाद भारत कैसा होगा।

कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के प्रयासों का नतीजा श्रमिकों के हकों के लिए लडने के लिए 1920 में आॅल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस ;एटकद्ध की स्थापना के रूप में सामने आया। औपनिवेशिक शासकों की बर्बरता और दमन का सामना करते हुए 300 से अधिक ऐसे ही देशभक्त दिसंबर 1925 में कानुपर में एकत्र हुए और काफी विमर्श के बाद 26 दिसंबर 1925 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कर दी। भाकपा आजादी की लडाई के अगले मोर्चे पर थी और उसने जनप्रिय स्वतंत्रता आंदोलन निर्माण के क्रम में समाज के सभी तबकों को लामबंद किया। इस दौर में डाॅ.्र अंबेडकर 1920 में लंदन से और गांधी दक्षिण अफ्रीका से वापस आ चुके थे।

पार्टी ने आजादी की लडाई के क्रम में 1936 में किसानों को लामबंद करने और एक जन संगठन अखिल भारतीय किसान सभा ;एआईकेएसद्ध बनाने, छात्रों को लमबंद करके आॅल इण्डिया स्टूडेंटस फेडरेशन ;एआईएसएफद्ध बनाने, प्रगतिशील लेखक संघ ;प्रलेसंद्ध गठित करने और 1943 में भारतीय जन नाट्य संघ ;इप्टाद्ध बनाने में ऐतिहासिक भूमिका अदा की। सोशलिस्टों ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के माध्यम से कांगे्रस के भीतर बेहद महत्वूपर्ण काम किया। स्वतंत्रता संग्राम वास्तव में एक जन आंदोलन बन गया था जिसने औपनिवेशिक शासन को खत्म किया और आजादी हासिल की।

आजादी के बाद भारत में भाकपा लोगों के जनाधिकारों और आजीविका के मुद्दों के संघर्षों का नेतृत्व कर रही है और अन्याय का विरोध करने के लिए प्रतिब( है। 95 वर्षों की इस लंबी यात्रा के दौरान, पार्टी ने माना है कि हमारे देश की अपनी विशिष्टताएँ हैं, जैसे पूंजीवादी वर्ग द्वारा श्रमिक वर्ग के शोषण में जाति व्यवस्था की संरचना, सांप्रदायिक विभाजन और पितृसत्ता जैसी संरचनाएं शोषण का माध्यम बनती हैं। जाति ढांचा आर्थिक और सामाजिक न्याय दिलाने के हमारे प्रयासों को बिगाडता है। लाखों लोग उनके जन्म लेने के पाप के कारण सैंकडों सालों से शिक्षा और अवसरों से दूर कर दिये जाते हैं और अभी तक उन्हें पीटकर मार डाला जाता ;लिंचिंगद्ध है। जाति की बेडियां, श्रम का अमानवीय बंटवारा जैसा कि डाॅ. अंबेडकर ने कहा हमारे देश को वैज्ञानिक प्रगति से दूर कर रहा है। पितृसत्ता का आवरण और महिलाओं के प्रति अनादर जो हमारे देश में हर दिन होने वाले भयावह अपराधों के बर्बर कार्यों में प्रकट होता है।

इन हालात में हमें विकल्प के बारे में सोचने की जरूरत है। ऐसे विकल्प केवल भारतीय विशेषताओं वाले समाजवाद में हो सकते हैं। संभवत भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के जन्म से ही भारत की विशेषताओं वाले समाजवाद की खोज जारी है। यहां तक कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कें संस्थापकों में से एक एम सिंगारवेलार के लेखों में ऐसे भारतीय परिस्थितियों वाले समाजवाद के हवाले हैं। 1921 में प्रकाशित गांधी बनाम लेनिन शीर्षक की पुस्तिका कामरेड एस ए डांगे द्वारा ना केवल गांधी और लेनिन की विचारधाओं का विश्लेषण है बल्कि भारत और रूस के विशेष हालात का विश्लेषण भी है। नेहरू और अंबेडकर ने भी भारतीय हालात में समाजवाद की चर्चा में सक्रियता से भाग लिया था। कम से कम तीन महत्वपूर्ण कारक भारतीय समाज को परिभाषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि हम इसे वास्तविकता में पाते हैं। वर्ग, जाति और लिंग तीन कारक हैं जो व्यापक रूप से भारतीय समाज की विशेषता और परिस्थिति निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

कम्युनिस्ट पार्टी और उसके कैडर को इस सभी संदर्भों के प्रति संवेदनशील होकर संबोधित करना चाहिए और समानताके हमारे संघर्षों ना केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मसलों के साथ जोडना चाहिए। गरीबी, जाति और लिंग की बुराइयों के प्रति यह समग्र दृष्टिकोण एक अधिक समावेशी, सामाजिक रूप से क्रान्तिकारी और वामपंथी राजनीतिक पार्टी की ओर अग्रसर होगा और भारतीय समाज में एक प्रमुख बदलाव का मार्ग प्रशस्त करेगा।

इतिहास के इस पडाव पर पार्टी के सामने आरएसएस और इसकी विभाजक, संकीर्ण, सांप्रदायिक, फासीवादी विचारधारा का सामना करने की चुनौती है। आरएसएस की स्थापना भाकपा से केवल तीन महीने पहले 1925 में ही हुई थी। आरएसएस देश की राजनीति के केन्द्र में आ चुकी है और भारत के गणराज्य को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने को लेकर व्याकुल है। आरएसएस की राजनीतिक शाखा भाजपा केन्द्र में सत्तारूढ है। मोदी सरकार आरएसएस के दुष्ट डिजायन को कार्यरूप दे रही है और कारपोरेट पंूजीवाद को आक्रामकता से समर्थन कर रही है।

भाकपा और उसकी पार्टी कांग्रेस ने मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद ठीक ही नोट किया था कि यह केवल सरकार का बदलाव नहीं है। आरएसएस, एक स्वघोषित सांस्कृतिक संगठन, केन्द्र में उसकी सरकार के माध्यम से उसकी विभाजक, सांप्रदायिक और ब्राहमणवादी हिंदुत्व राजनीतिक एजेंडे को थोपने का प्रयास कर रही है और ठीक उसी समय पर अपने कारपोरेट स्वामियों की सेवा में भी लगी है। हमें इसके मूल्यांकन की जरूरत है कि आरएसएस कितने गहरे हमारे समाज और हमारे गणराज्य में पैठ बना चुकी है और इसे अब मुश्किल ही धर्मनिरपेक्ष समाजवादी कहा जा सकता है।

राज्य और समाज का कोई भी हिस्सा अब उनसे अछूता नहीं है और वे जाति, वर्ग, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव कर रहे हैं और साफतौर पर गणराज्य के आधार में तनाव पैदा कर रही है। इसका नतीजा यह है कि समाज के सभी तबके वे किसान हो, मजदूर, दलित, अल्पसंख्यक, महिलाएं, युवा अथवा छात्र हों हरेक सरकार के कठोर कदमों के खिलाफ सडकों पर हैं।
जब हम पार्टी की 100 वीं वर्षगांठ मनाने के करीब पहुंच रहे हैं, हमारी सबसे बडी चुनौती आरएसएस-भाजपा की बहुसंख्यकवादी, विभाजनकारी और शोषक डिजाइन के खिलाफ संघर्षों को भारतीय विशेषताओं वाले समाजवादी व्यवहार वाले तार्किक और वैज्ञानिक राजनीतिक नेतृत्व में एक समावेशी और सर्वव्यापी संघर्ष में शामिल करना है।

अपनी विविधताओं के लिए जाने जाने वाले इस देश में आरएसएस-भाजपा एकरूपता थोपने का प्रयास कर रही हैं। वे भारत और भारतीय समाज को एक सजातीय खंड के रूप में बदलने के प्रयास कर रहे हैं। हाल ही में संघ परिवार ने नारा उछाला एक देश, एक नागरिक संहिता परंतु सरकार में छह साल रहने के बाद और एक देश एक कर थोपने के बाद और जनता के लिए बडी मुश्किलें खडी करके एक देश एक भाषा, एक देश एक चुनाव आदि विविधता और देश के संघीय ढंाचे को अपमानित करने वाले मसले अब उनके एजेंडे में हैं।

जल्दी वे एक देश, एक धर्म पर काम करेंगे जो लव जिहाद जैसे मसलों से फैलाये जा रहे इस्लामोफोबिया से साफ जाहिर है और उनकी प्रौपेगेन्डा मशीनरी किसान आंदोलन को खालिस्तानी कहकर बदनाम करने की कोशिश कर रही है क्योंकि वे सिख हैं। ‘एक देश, एक धर्म‘ का आह्वान धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश का अंत होगा जिसे हमने बनाया और इसके लिए बहुत त्याग किया। इस रोशनी में, आरएसएस-भाजपा को न केवल चुनावी रूप से हराया जाना चाहिए, बल्कि हमारे समाज में भरी नफरत और विभाजन को दूर करने के लिए अथक परिश्रम करना होगा इससे पहले कि वे इस देश को एक ब्राह्मणवादी हिंदुत्ववादी राष्ट्र में बदल दें। उन्होंने हिंदी, हिंदू और हिंदूस्थान कहना और संविधान के स्थान पर मनुस्मृति को मानना जारी रखा है। यही चुनौती है।

हमारी पार्टी, भाकपा अपनी उच्च स्तरीय वैचारिक, राजनीतिक प्रतिब(ताओं और सांगठनिक अनुशासन के साथ अपने ऐतिहासिक मार्च को जारी रखेगी। पार्टी को देश को आगे ले जाने के लिए अग्रिम पंक्ति में रहकर सभी क्रान्तिकारी, जनवादी ताकतों को एकताब( और संगठित कर एक बेहद रचनात्मक भूमिका अदा करनी होगी।

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