गरीब विरोधी कार्पोरेट बजट
डी. राजा
वर्ष 2022-23 के लिए बजट सरकार की कार्पोरेट और बड़े कार्पोरेट घरानों के प्रति निष्ठ का एक और दृढ़ उद्घोष है। इस बजट ने एक बार फिर भाजपा की आर्थिक झुकाव को और नीतियों की दिशा को ‘अमृत काल’ के लिए प्रदर्शित किया है या यह आगामी 25 वर्षों में नव-उदार नीतियों की आक्रामकता का रास्ता खोलेगी। निजी क्षेत्र के विकास पर भारी जोर और जन एवं सामाजिक क्षेत्रों की पूर्ण अवहेलना इस तरह विकास माॅडल के प्रमुख लक्षण हैं। इस बजट की राजनीति समझना जरूरी है और सरकार की मंशाओं पर ध्यान रखना और इस बजट से वे किसका हित पूरा करना चाहते हैं यह समझना भी जरूरी है।
भारत की रोजगार संरचना व्यापक तरह से खेती और संबंधित गतिविधियों से जुड़ी हुई है, खेती की दशा बिगड़ती जा रही है, खेती के लिए वर्ष 2020-21 का जोड़ा गया सकल मूल्य 20.2 प्रतिशत से गिरकर वर्ष 2021-22 में 18.8 प्रतिशत हो गया है। हमारी ग्रामीण व्यवस्था के सुचारू होने और देश की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए खेती में निवेश करना जरूरी है। इस समझ के विपरीत सरकार ने कृषि और इससे संबंधित गतिविधियों के लिए आवंटित बजट में भारी कटौती की है। कृषि संकट से निपटने के लिए किसी उपायों की घोषणा नहीं की गई है। कृषि के लिए आवंटित बजट ;वर्ष 2021-22 का संशोधित अनुमानद्ध 474750.47 करोड़ रू. से घटाकर 370303 करोड़ कर दिया गया है, यह पिछले वर्ष के मुकाबले 100000 करोड़ रूपए कम है, धान और गेहूं फसल खरीद के लिए आरक्षित राशि पिछले साल के मुकाबले 10,000 करोड़ रूपए कम है। किसान आंदोलन की मांगों को पूरा नहीं किया गया और वित्तमंत्री ने किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के संबंध में कुछ भी नहीं कहा। ऐसा लगता है समाज के सभी तबकों के समर्थन से देश के किसानों से मिली पराजय को भाजपा नीत सरकार हजम नहीं कर पाई, किसानों ने इस सरकार को तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया था और सरकार ने इसका बदला देश की संपूर्ण ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अंकुश लगाकर किया है। इस तरह की प्रतिक्रिया जन-प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार का ना होना है।
महामारी की तबाही और इससे पहले के सालों के कुप्रबंधन से अर्थव्यवस्था अभी भी उभरने के प्रयास में है, लेकिन सरकार को खासतौर से ग्रामीण क्षेत्र से प्रभावी मांग के ना होने की सुध नहीं है। बजट में ग्रामीण विकास का हिस्सा 5.59 प्रतिशत से घटाकर 5.23 प्रतिशत कर दिया है। मनरेगा ने महामारी के दौरान करोड़ों लोगों को तंगी से बचाया और मनरेगा के काम में जून 2021 में 4.59 करोड़ लोगों के काम की मांग का उछाल आया। तब से कुछ भरपाई तो हुई लेकिन बेरोजगारी की संख्या अभी भी चैंकाने वाली है। मनरेगा के बजट आवंटन में कटौती करना केवल बूरी अर्थव्यवस्था नहीं है यह बूरी राजनीति भी है और यह करोड़ों लोगों के काम छूटने और गरीबी से जूझ रहे लोगों के प्रति सरकार की पूर्ण अपेक्षा है। मनरेगा के लिए वर्ष 2021-22 का संशोधित अनुमानित बजट 980000 करोड़ रूपए था लेकिन इस बजट को वर्ष 2022-23 के लिए घटाकर 73000 करोड़ रू. कर दिया गया है। मनरेगा के फंड की कमी और राज्यों के बकाया एरियरों की चर्चा पिछले साल अखबार की सूर्खियों में रही लेकिन भाजपा सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। अपने कार्पोरेट मालिकों की सेवा में सरकार ने बड़े आराम से देश के वास्तविक संपदा सर्जकों किसानों और मजदूरों को भूला दिया है।
अभी हाल ही में आक्सफेम इंटरनेशनल ने असमानता पर अपनी एक रिपोर्ट को ‘हत्यारी असमानता’ के नाम से जारी किया और देश में गरीबों और अमीरों के बीच बढ़ती खाई पर चिन्ता जाहिर की। रिपोर्ट में कहा गया कि ‘‘भारतीय करोड़पतियों की संख्या जो कि वर्ष 2020 में 102 थी वह 2021 में बढ़कर 142 हो गई है, इसी साल में महामारी के दौरान भारत के सबसे नीचले आर्थिक स्तर की आबादी के 50 प्रतिशत की राष्ट्रीय संपत्ति में हिस्सेदारी मात्र छह प्रतिशत थी।’’ इस रिपोर्ट में इस गंभीर अवस्था में सुधार के लिए ‘अमीर पक्षीय’ टैक्स नीति और गरीबों को सेवाएं उपलब्ध कराने जैसे मामूली बदलाव की पेशकश है, रिपोर्ट ने पाया कि ‘‘भारत में 98 सर्वाधिक अमीरों पर 4 प्रतिशत संपत्ति कर लगाने के द्वारा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय अपने लिए अगले दो वर्षों से भी अधिक समय के लिए मध्याह्न भोजन कार्यक्रम के लिए अगले 17 सालों के लिए या समग्र शिक्षा अभियान के लिए अगले छह वर्षों के लिए संसाधन जुटा सकती है।’’ इसी तरह ‘‘सर्वाधिक अमीर 98 अरबपति परिवारों पर एक प्रतिशत संपत्ति कर लगाने से सरकार आयुष्मान भारत योजना के लिए सात वर्षों से ज्यादा समय के लिए या भारत सरकार की स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग के लिए एक साल से ज्यादा समय के लिए वित्त जुटा सकती है।’’
दुर्भाग्यवश यह सरकार अति गरीब विरोधी है और अपने अमीर और क्रोनी पूंजीवादी दोस्तों को रत्तीभर दुख न पहुंचाने के प्रति इतनी सचेत है कि उसके लिए संपत्ति पुर्नवितरण जैसी दूरगामी योजना पर सोचना भी दूर की चीज है।
भारत का जन स्वास्थ्य तंत्र महामारी के समय पूरी तरह बिखर गया और इसने प्राइवेट स्वास्थ्य क्षेत्र जो कि असुलभ, अन्यायी और गैरपारदर्शी है उस पर अत्याधिक निर्भरता की मूर्खता को उजागर कर दिया। स्वास्थ्य को बजट का छठवां खंभा कहने के बावजूद स्वास्थ्य और जन कल्याण के लिए पिछले साल का बजट महामारी के समय बढ़ गया था उसमें मामूली सी बढ़त देखने को मिली है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण का संपूर्ण बजट केवल 0.96 प्रतिशत बढ़ा है और इस पर रिसर्च बजट में 3.90 प्रतिशत की बढ़त है। हमारे मौजूदा स्वास्थ्य तंत्र की असमानताओं को पाटने के लिए यह आवंटित बजट अपर्याप्त है। यहां तक कि सरकार महामारी की तीसरी लहर से भी कोई सीख लेने के लिए तैयार नहीं है। दुर्भाग्यवश इस बजट में जो बढ़त की गई है और जो घोषणाएं की गई हैं वे भी जन स्वास्थ्य तंत्र की बदौलत निजी खिलाड़ियों को लाभ पहुंचाने के लिए हैं।
कोविड टीकाकरण के बजट में 87 प्रतिशत की कटौती कर दी गई है। यह दर्शाता है कि सरकार का मानना है कि हम महामारी से उभर चुके हैं जबकि सच कुछ और ही है। मोदी के शासनकाल की एक और विशेषता है कि भूख और पोषण समेत सभी सामाजिक सूचकांकों के स्तर पर भारत का स्थान नीचे पहुंचा है। इस स्थिति को नियंत्रित करने की जगह स्कूलों के मध्याह्न भोजन के लिए आवंटित बजट में 11 प्रतिशत की गिरावट आई है बजट को 11500 करोड़ हजार रू. से घटाकर 10233 करोड़ हजार कर दिया गया है, यह बदहाल बाल पोषण स्थिति को और भी बदहाल करेगा। शिक्षा के वार्षिक रिपोर्ट के संदर्भ में यह बजट कटौती चांैकाने वाली है। शिक्षा स्तर रिपोर्ट ;एएसइआरद्ध की शोध है कि 6 से 14 साल के बच्चे जिनका वर्तमान में स्कूल में दाखिला नहीं है उनकी संख्या वर्ष 2018 में 2.5 प्रतिशत थी वह वर्ष 2021 में बढ़कर 4.6 हो गई है यह शिक्षा के अधिकार को नष्ट करना है। सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक शिक्षा और रोजगार सब पर तलवार लटकी हुई है। भाजपा के शासन में देश का भविष्य धुंधला सा लगता है।
प्रधानमंत्री ने कई बार राजनीतिक लाभ लेने के लिए प्रतिक्रियावादी उद्घोष किए है और सामाजिक न्याय के लिए असफलता सरकार की विशेषता है। इस महामारी से अनौपचारिक मजदूर और खेत मजदूर प्रभावित हुए और उसमें भी अधिक संख्या दलित और अन्य हाशियाई समुदायों के व्यक्तियों की है जिन्हें इस बजट से कोई राहत नहीं मिली है। देश में विश्वविद्यालय परिसरों को खोलने के बजाय सरकार की मंशा विदेशी विश्वविद्यालयों को बुलाने की है जिस पर सरकार की कोई निगरानी नहीं रहेगी जिससे शिक्षा के द्वारा असमानताओं को तोड़ने का रास्ता और भी बंद हो जाएगा। इन विदेशी विश्वविद्यालयों की ऊंची फीसों और समावेशिता के अभाव से पहले से सक्षम लोगों को और फायदा पहुंचेगा और यह दलितों और अन्य हाशियाई तबकों के लिए नुकसानदायी होगा। पहले ही अंधाधुंध निजीकरण सामाजिक न्याय की जड़ों पर कुठाराघात कर रहा है फिर भी सरकार अपने कार्पोरेट पक्षीय एजेंडे को बेहिचक आगे बढ़ा रही है।
इस बजट में हमारे समाज के हशियाई समुदायों के लिए कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। सामाजिक न्याय और दिव्यांगजन सशक्तिकरण मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय एवं अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के लिए किया गया आवंटन नाममात्र का है जो कि शर्मनाक है। अनूसूचित जाति संघटक योजना और आदिवासी उपयोजना की अनुपस्थिति में मोदी सरकार और नीति आयोग इन तबकों के साथ ऐसा व्यवहार कर रही है मानो कि दलित, आदिवासी, दिव्यांगजन, अन्य पिछड़ावर्ग, अल्पसंख्यक सरकार की कृपा पर है और यह भावना संविधान में प्रतिष्ठत सम्मान के साथ जीने का अधिकार के विपरीत है।
विपक्ष ने कई बार सरकार से मांग की है कि महामारी से प्रभावित व्यक्तियों के नुकसान की भरपाई उनके खातों में नगदी हस्तांतरण से करे जिससे कि मांग बढ़े लेकिन सरकार के विद्वानों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। देश गरीबी, असमानता, बेरोजगारी और बीमारी में गिर रहा है लेकिन सरकार विश्वास दिलाना चाहती है कि ‘केपेक्स’ ;पूंजीव्ययद्ध से विकास होगा।
केपेक्स ;पूंजी व्ययद्ध की उच्च राशि मुख्यतः एयर इंडिया के उधार और रक्षा व्यय की पूर्ति के लिए है। ‘सार्वजनिक उद्यमों का घाटा और निजी कंपनियों को मुनाफा’ की उत्कृष्ट मिशाल एयर इंडिया का मामला है। मोदी सरकार दो करोड़ नौकरियां देने के अपने वायदे को पूरा करने में पूरी तरह असफल रही है फिर भी वित्त मंत्री 60 लाख नौकरियां देने का वायदा कर रही है। ऐसे बड़े-बड़े वायदे और इनकी असफलताएं जेम्स बाल्दविन की इन पंक्तियों की याद दिलाती हैं, ‘‘मैं विश्वास नहीं कर सकता तुम जो कहते हो क्योंकि तुम जो करते हो मैं उस पर नजर रखता हूं।’’ सरकार ने समाज के सभी तबकों के साथ विश्वासघात किया है इसलिए देखना और भत्र्सना करना सबकी जिम्मेदारी है।