“उभर चुकी हूँ”
“ठिठुर कर ठिठकना भूल चुकी हूँ, मिटती मिटाती उभर चुकी हूँ, बेबस नहीं बेबाक बड़ी हूँ खुद के रचाए आसमान के नीचे इतराती खड़ी हूँ”
मंटो की कलम से टपकी आग उगलती स्याही की बूँदें और इस्मत के दिमाग की अंगीठी से उठती धधकती आग हूँ मैं ..
नैंनों में नीर भरना मौत है मेरे लिए मेरी आत्मा का,
अम्रिता की स्वच्छंदतावाद का मूर्त स्वरुप हूँ..
क्यूँ ज़माना जल गया मेरे अंदाज़ देखकर
है ना मेरे जिस्म से बहती संदली सी सुगंध में आज़ादी का नशा
चखने का साहस मत करना
कड़वी जायकेदार नदी हूँ मैं…
अपने मर्म को प्रतिकार की धूप में शेक लिया है मैंने
रेत सी नहीं रही अपनी फूँक को काबू में रखो..चट्टान हूँ टकराकर चूर हो जाओगे…
सिंचती हूँ खुद को विद्रोही खून से,
हर नारी के शौर्य को जीवित जो करना है मुझे…
बौने खयालात की आहुतियां देकर वैचारिक हड्डियों में नया अलख जगाना है
कमज़ोर नहीं हथियार समझो
अंतस से आर्दता को मिटाना है….
धरातल करते हर विमर्श को हर मानुनी को उपर उठाना है
उतार फेंको अपनी मनोभूमि से प्रताड़ना का परिताप…
सत्यम शिवम सुंदरम का पूँज हूँ आवाम में आह्लादित तरंग जगाना है मुझे।
भावना ठाकर,बेंगुलूरु