हमारी स्वतंत्रता और आज का भारत
डी राजा
15 अगस्त आज के ही दिन सात दशक से भी अधिक समय पहले 1947 में, हमारे देश ने अपने भविष्य के लिए अपने प्रयास की शुरुआत की थी। हमारे द्वारा हासिल राजनीतिक स्वतंत्रता हमारे देश के लोगों द्वारा दशकों के संघर्ष का परिणाम है। ब्रिटिश शासन की शोषक प्रकृति को पहचानते हुए ही हमारे देश के विभिन्न हिस्सों में लोगों ने संगठित संगठनों या राजनीतिक दलों के अस्तित्व में आने से बहुत पहले ही औपनिवेशिक आकाओं के शोषण का विरोध करना शुरू कर दिया था। लोगों ने कई बार स्थानीय सहयोगियों के साथ-साथ ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी। लोगों की सामूहिक स्मृति पर एक अमिट छाप छोड़ने के लिए इन स्वतःस्फूर्त विद्रोहों को ब्रिटिश शासकों ने बेरहमी से दबा दिया था।
इस दौर के संघर्ष बहुआयामी थे। संघर्षों का कोई एक तरीका नहीं था और न ही उनकी कोई एक सार्वभौमिक मांग थी। अगर कुछ समान था, तो वह स्वतंत्रता की चाहत थी। लेकिन इस आजादी के मायने हमारे समाज के विभिन्न वर्गों के लिए अलग-अलग थे। महिलाओं के लिए यह स्वतंत्रता, स्वाभिमान और सभी प्रकार की पितृसत्तात्मक अधीनता से मुक्ति थी, दलितों और शूद्रों के लिए, स्वतंत्रता का अर्थ मनुवादी ब्राह्मणवादी आधिपत्य के हजारों वर्षों के शोषण और यातना से मुक्ति, आदिवासी समुदायों के लिए यह वन भूमि पर दावा करने की स्वतंत्रता और दुष्ट वन ठेकेदारों से स्वतंत्रता थी। और विकास के नाम पर लगातार विस्थापन के भय से मुक्ति।
अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के लिए, यह बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की अधीनता के भय से मुक्ति और उनके आस्थाओं के अनुरूप व्यवहार करने का अधिकार था। यहां साफ समझ की एक अंतर्निहित धारा थी कि औपनिवेशिक शासन मूल रूप से शोषक था, देश को लगातार लूट रहा था और इसके सभी संसाधनों को खत्म कर रहा था।
20वीं सदी के शुरुआती दशकों में, जब मुक्ति आंदोलन समुदायों को करीब ला रहा था, हमने देखा कि मोहम्मद अली जिन्ना देशद्रोह के मामले में तिलक के बचाव में खड़े थे और भगत सिंह सांप्रदायिकता, हिंदू बहुसंख्यकवाद या हिंदुत्व के खिलाफ जोरदार बहस कर रहे थे। लोगों ने देखा कि बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर महिलाओं की मुक्ति सहित जाति आधारित शोषण से मुक्ति और जमींदारों द्वारा सामंती आर्थिक शोषण के खिलाफ अपना संघर्ष करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे थे। डाॅ. अम्बेडकर ने कोंकण और अन्य क्षेत्रों में सामंतवाद-विरोधी संघर्षों का नेतृत्व किया, जो इतने समावेशी थे कि उच्च जातियों के द्वारा शोषितों ने भी बड़ी संख्या में भाग लिया और जब संघर्षों के सफल परिणाम सामने आए तो उन्हें इसका लाभ मिला। मोहनदास करमचंद गांधी और कांग्रेस के नेतृत्व में जन संघर्षों और उभरते हुए कम्युनिस्ट आंदोलन और अन्य जुझारू क्रांतिकारी संगठनों और कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में जुझारू वर्ग संघर्षों के अलावा 75 साल पहले स्वतंत्रता में योगदान देने वाले इन सभी संघर्षों को भी समग्र रूप से देखा जाना चाहिए।
ब्रिटिश शासन से भारत की आजादी को स्वतंत्रता सेनानियों ने न केवल ब्रिटिश शासन से मुक्ति के रूप में समझा, बल्कि उन सभी प्रकार के शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति के रूप में भी देखा जो भारत के लिए स्वदेशी सामाजिक संरचनाओं के भीतर गहरे समाहित थे। कुछ भी प्रगतिशील, कुछ भी लोकतांत्रिक, कुछ भी धर्मनिरपेक्ष था और यह कुछ भ्ी पितृसत्तात्मक मनुवादी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ था तो इसी सामाजिक संरचना के भीतर से लगातार इसका प्रतिरोध था। यह प्रतिरोध समाज के रूढ़िवादी और अंधवादी वर्गों से आया था, जो औपनिवेशिक भारत में नए उभरते प्रगतिशल लोगों के खिलाफ जमींदारों, सामंती रियासतों या रियासतों जैसे सत्ता के संगठित संस्थानों के साथ इनका गठबंधन था।
संविधान सभा में बहस के दौरान अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग रूपों में लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले किए गए। भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने के लिए हिंदुत्ववादी ताकतों का लगातार दबाव था। समर्थन में आयरलैंड और अन्य देशों के उदाहरणों का लगातार हवाला दिया गया। इन सबके खिलाफ डाॅ. अम्बेडकर चट्टान की तरह खड़े रहे। डाॅ. अम्बेडकर ने धर्मतंत्र को जोरदार रूप से खारिज कर दिया और चेतावनी दी कि ‘यदि हिंदू राष्ट्र एक वास्तविकता बन जाता है तो यह राष्ट्र के लिए आपदा होगी।‘ स्वतंत्रता के बाद प्रतिक्रियावादी ताकतों के खिलाफ भारतीय लोगों का संघर्ष और तेज हो गया। महात्मा गांधी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की थी, जिनके आरएसएस और हिंदू महासभा के साथ संबंध अच्छी तरह से स्थापित थे। गांधी की हत्या धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर एकजुट और संगठित हमले की शुरुआत थी।
डाॅ. अम्बेडकर जो धर्मनिरपेक्षता के पक्के अनुयायी थे, उन्होंने हमारे संविधान को इस तरह से बनाया कि समाज के सभी वर्गों के हितों की रक्षा हो सके। प्रस्तावना से ही, हमारे स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों को संविधान के सभी हिस्सों में निहित किया गया था और हमें स्वतंत्रता आंदोलन की भावना के विपरीत राज्य की मनमानी कार्रवाई से बचाने के लिए और हमारे मार्गदर्शन के लिए हमें राज्य की नीति के निर्देशक सि(ांत और मौलिक अधिकार मिले। विधायिकाएँ बिना भेदभाव के और कल्याण की तरफ रहें, जिसके लिए संविधान यह अनिवार्य बनाता है कि भारतीय राज्य एक धर्मनिरपेक्ष और कल्याणकारी राज्य बना रहे।
डाॅ. अम्बेडकर के सक्षम नेतृत्व ने संविधान सभा की जटिल, कभी-कभी गरमागरम बहसों और एक संभावित तय समय पर संविधान बनाने के लिए लंबा सफर तय किया और साथ ही इस काम के अंतिम परिणाम को दशकों के लंबे स्वतंत्रता संग्राम, जो लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामंतवाद विरोधी और समतावादी है, के द्वारा पोषित लक्ष्यों से ज्यादा विचलित नहीं होने दिया था। उन्होंने हमारे देश को विकसित करने के लिए एक ऐसे मार्ग की रूपरेखा तैयार की, जो सामाजिक न्याय और समाजवाद के समावेश की तर्ज पर हो। यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं थी। इस विलक्षण उपलब्धि का श्रेय डाॅ. अम्बेडकर और उनकी टीम को जाता है।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि 15 अगस्त, 1947 को केवल प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश शासन के तहत प्रशासित हाने वाले क्षेत्रों की सत्ता हस्तांतरित की गई थी। देशी शासकों के अधीन देश के महत्वपूर्ण हिस्से पांच सौ से अधिक थे और इसमें निजाम के अधीन हैदराबाद और डोगरा शासक हरि सिंह के अधीन कश्मीर जैसे काफी बड़े और विवादास्पद हिस्से शामिल थे। 1947 से 1950 तक, हमारे राष्ट्र के संस्थापक नेताओं को एक संविधान को आकार देने के अलावा इन सभी को एक देश में लाने के दोहरे कार्य को करना था। भारत की संविधान सभा प्रांतीय विधायिकाओं द्वारा चुनी गई थी और उस समय तक गुप्त और बड़े पैमाने पर भूमिगत कम्युनिस्ट पार्टी को इसमें बहुत कम प्रतिनिधित्व मिला था।
हालाँकि, कम्युनिस्टों ने अपने बाहर के जुझारू जन संघर्षों के माध्यम से संविधान सभा के एजेंडे को सुना और उसे आकार दिया। जैसा कि सरदार पटेल ने स्वयं एक बार बंबई के प्रसि( वकील चारी से टिप्पणी की थी कि कम्युनिस्टों के नेतृत्व और संगठित जुझारू जन संघर्षों ने भारतीय संघ में शामिल होने के अलावा रियासतों के राजकुमारों, राजाओं या नवाबों के लिए अब कोई विकल्प नहीं छोड़ा है। भारतीय राष्ट्र राज्य के विकास और एकीकरण में कम्युनिस्ट आंदोलन के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
स्वतंत्रता संग्राम की मांगों को आकार देने में कम्युनिस्ट भी सबसे आगे थे और भारतीय लोगों के लिए उनके महत्वाकांक्षी एजेंडे ने स्वतंत्रता आंदोलन के क्षितिज का काफी विस्तार किया। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि कम्युनिस्टों ने ही सबसे पहले अंग्रेजों से ‘पूर्ण स्वतंत्रता‘ की मांग की थी, जिसने संघर्ष के पूरे एजेंडे को क्रान्तिकारी बना दिया था। कानपुर में प्रथम भाकपा सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष हसरत मोहानी ने सबसे पहले कांग्रेस के एक अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता की मांग उठाई थी।
उन्होंने ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ का प्रेरक नारा भी गढ़ा, जिसे बाद में भगत सिंह जैसे शहीदों ने लोकप्रिय बनाया। संविधान सभा की मांग सबसे पहले कम्युनिस्ट एमएन राॅय ने उठाई थी। यह कम्युनिस्टों के नेतृत्व में जुझारू लामबंदी थी जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस ने अपने एजेंडे के हिस्से के रूप में पूर्ण स्वतंत्रता को शामिल किया। भारतीय राष्ट्र के निर्माण में ये शानदार योगदान आज भी साम्राज्यवाद के नए रूपों के खिलाफ हमारे अथक संघर्ष में हमारी प्रेरणा हैं।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्ति का मतलब पूंजीवादी हितों द्वारा सभी नापाक मंसूबों का अंत नहीं था क्योंकि वे भारत और उनके बाजारों, संसाधनों और श्रम शक्ति सहित विकासशील देशों पर अपना कब्जा बनाये रखना चाहते थे। द्वितीय विश्व यु( समाप्त होने के बाद, उपनिवेशवाद के औपचारिक अंत के परिणामस्वरूप भारत की दक्षिणपंथी ताकतों के सहयोग से साम्राज्यवादी हमले के एक नए चरण की शुरुआत हुई। यह हमला भी बहुआयामी है। इस क्षेत्र में साम्राज्यवादी साजिश एक तरफ भारत को बाहरी खतरों से उजागर करके और देश के भीतर किसी भी तरह की विभाजनकारी प्रवृत्तियों में लगातार ईंधन भरने की कोशिश कर रही है। देश में दक्षिणपंथी ताकतों के लिए निरंतर समर्थन ने उन्हें हमारे समाज की गलतियों की खाई को चैड़ा करने में सक्षम बनाया है।
पिछले तीन दशकों के दौरान हमने श्रम और पूंजी बाजारों के निजीकरण, व्यावसायीकरण और उदारीकरण की एक निरंतर जारी प्रक्रिया देखी है, विश्व व्यापार संगठन या अन्य ऐसे संगठनों के दबावों के आगे झुकने की निरंतर प्रक्रिया और वित्तीय पूंजी के निर्देशों के अनुरूप विनाशकारी आर्थिक परिवर्तन हुए हैं। वर्तमान आरएसएस-भाजपा गठबंधन सरकार कृषि से लेकर शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक हर चीज के पूर्ण निगमीकरण की ओर बढ़ रही है या सचमुच सरपट दौड़ रही है। यह शासन भारत को अमेरिका के साथ एक अपरिवर्तनीय रणनीतिक साझेदारी के लिए मजबूर कर रहा है, इस प्रकार हमारी विदेश नीति में प्रगतिशील और लोकतांत्रिक हर चीज को हटाया जा रहा है। अर्थशास्त्र और राजनीति की अविभाज्य प्रकृति पर माक्र्सवादी नजरिया इस संदर्भ में सही साबित होता है क्योंकि भारत में वित्त पूंजी की वृद्धि धार्मिक और जाति के आधार पर अत्यधिक ध्रुवीकरण के साथ-साथ रही है।
हम अपने चारों ओर अराजकता और व्यापक संकट देखते हैं क्योंकि हम अगले साल अपनी स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ के करीब पहुंच रहे हैं, जिसके लिए सरकार ने एक समिति बनाई है। ऐसी समितियों का गठन एक बहाना बना रहता है जबकि देश हमारी आजादी को दिन-ब-दिन खो रहा है, पेगासस की घटना सिर्फ एक ताजा उदाहरण है। वर्तमान सरकार ने हमारी बहुमूल्य स्वतंत्रता और उससे जुड़े मूल्यों को कमजोर करने के लिए इतना कुछ किया है कि हमें आरएसएस और उसके हिंदुत्व के एजेंडे से अपनी आजादी वापस लेने के लिए एक नया स्वतंत्रता संग्राम छेड़ने की जरूरत है। हमें उस संघर्ष के लिए खुद को प्रतिबद्ध और तैयार करना चाहिए जैसा कि वामपंथियों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान किया था।
राष्ट्र की सेवा के लिए खुद को पूरी तरह से समर्पित करने और साम्राज्यवाद के खिलाफ अपने कार्यकर्ताओं और किसानों को संगठित करने का हमारा बहादुरी भरा अतीत हमारे और उन सभी लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है, जो आरएसएस-भाजपा के वर्चस्व के नए रूपों के खिलाफ लड़ रहे हैं। यह संघर्ष हमारी आजादी को वापस पाने के लिए एक वैचारिक संघर्ष है। इसे जमीनी स्तर से संसद तक छेड़ना होगा और यही भारत के लोगों के लिए सच्चा स्वतंत्रता संग्राम होगा। कम्युनिस्ट और वामपंथी इसमें अग्रणी भूमिका निभाएंगे क्योंकि वामपंथी ही दक्षिणपंथी-फासीवादी हमले से लगातार लड़ने वाली, मजबूत ताकत है।