रोजगार खत्म होने, आमदनी घटने और बढ़ती बेरोजगारी से बेचैनी ओैर बेबसी का माहौल
आर एस यादव
भारत में रोजगार और मजदूरी की हालत पहले ही कम खराब नहीं थी। कोरोना-19 महामारी ने रोजगार, मजदूरी और आमदनी के मामले में भारत के लोगों को अभूतपूर्व खराब दौरे से गुजरना पड़ रहा है। ऊपर से लगातार बढ़ती महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है। आम आदमी गुजर-बसर करे तो कैसे करे?
कोरोना की दूसरी लहर में भले ही राष्ट्रीय स्तर पर लाॅकडाउन न लगा हो क्योंकि मोदी सरकार बुरी तरह डरी हुई थी कि यदि उसने लाॅकडाउन लगाया तो उससे होने वाले तमाम नुकसान का ठीकरा उसी के सिर पर फोड़ा जाएगा, ऐसे में कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए राज्यों को अपने तौर पर लाॅकडाउन और अन्य पाबन्दियों की घोषणा करनी पड़ी।
भले ही राष्ट्रीय स्तर पर लाॅकडाउन न लगा हो, पर राज्यों द्वारा लगाए गए लाॅकडाउन का अर्थव्यवस्था और खासतौर पर पर रोजगार पर असर पड़े बिना नहीं रहा। देश में बेरोजगारी की दर मई में 11 प्रतिशत और जून में 9.7 प्रतिशत रहीं। राजस्थान, पश्चिम बंगाल और बिहार समेत 11 राज्यों में बेरोजगारी की दर राष्ट्रीय औसत से तीन गुना तक ज्यादा है।
सेन्टर फाॅर माॅनीटरिंग इंडियन इकाॅनोमी ;सीएमआईईद्ध के अनुसार, हरियाणा में बेरोजगारी दर सर्वाधिक 27.9 प्रतिशत है। राजस्थान में यह 26.26 प्रतिशत, बंगाल में 22.1 प्रतिशत, बिहार में 10.5 प्रतिशत और झारखंड में 12.8 प्रतिशत है। बेरोजगारी दर का अर्थ यह है कि जितने लोग काम चाहते हैं उनमें से कितने प्रतिशत को काम नहीं मिला।
जिन राज्यों में बेरोजगारी दर कम है, वहां बड़ा कारण मनरेगा के तहत बांटा गया काम है। मनरेगा न तो नियमित काम प्रदान करता है और न उसमें मजदूरी पर्याप्त मिलती है। एक परिवार को वर्ष भर में 100 दिन काम मिलता है। निश्चय ही इससे गरीब लोगों का बड़ी राहत मिलती हैऋ खाने को रोटी मिल जाती है। पर यह मानना सही नहीं होगा कि इसे नियमित काम के समकक्ष माना जाए और इसमें काम करने वालों को बेरोजगार की जगह बारोजगार माना जाए। इस लिहाज से देखने पर पता चल सकता है कि देश में बेरोजगारी का स्तर 9.7 प्रतिशत नहीं बल्कि इससे दो गुने से तीन गुना अधिक है।
कोरोना से एक अन्य विकट स्थिति यह बनी है कि देश की आबादी के 97 प्रतिशत की आमदनी में कमी आ गई। आमदनी में इस कमी के साथ लगातार बढ़ती महंगाई को देखते तो समझ सकते हैं कि जिन लोगों की आमदनी घटी है और उन पर क्या गुजर रही है।
कोरोना -19 महामारी के इस दौर में भारत में जहां एक तरफ करोड़ों लोगों से रोजगार एक सिरे से छिन गया ;और जिनकी किसी के पास सही गिनती तक नहींद्ध तो दूसरी तरफ जो लोग वैतनिक काम (सैलरीड जाॅब) कर रहे थे, उनमें से भी करोड़ों की नौकरियां छिन गईं इसके अलावा निजी क्षेत्र में वैतनिक काम करने वाले करोड़ों कामगारों/कर्मचारियों के वेतनों में कटौती कर दी गयी और रोजगार के हालात इतने खराब हैं कि वे वेतन में इस नाजयाज कटौती के खिलाफ चूं तक नहीं कर सकते।
केरोना का अमरीका जैसे अमीर देशों में भी रोजगार पर भारी दुष्प्रभाव पड़ा है। पर भारत और अमरीका के बीच भारी अंतर यह है कि वहां जिन लोगों से रोजगार छिना है, उन्हें सरकार ने हर सप्ताह बेरोजगारी भत्ता देना शुरू कर दिया। जो सैंकड़ों नहीं लाखों रुपये में है।
भारत के मजदूर और अमरीका के बीच के अंतर को इससे समझा जा सकता है कि अमेरिका में कंेद्र सरकार ने न्यूनतम वेतन 540 रुपये प्रति घंटा (ध्यान दें 540 रुपये प्रति घंटा, न कि दैनिक) रखा है और वहां यह हर कामगार को मिलता है। भारत जैसी स्थिति नहीं कि कानूनी न्यूनतम मजदूरी कुछ भी हो, पर मिलती उतनी है जितनी नियोक्ता देना चाहता है और कोई सुननेवाला नहीं है।
अमेरिका में भारत के मुकाबले इतनी बेहतर स्थिति होने के बावजूद अमेरिका में इसके खिलाफ आवाज उठ रही है कि कामगारों के वेतन में उतनी वृद्धि क्यों नहीं हो रही है जितनी ऊंचे वेतन पाने वाले अधिकारियों की।
इकाॅनोमी पाॅलिसी इंस्टिट््यूट के अनुसार, 1979 से 2019 के बीच न्यूनतम वेतन पाने वालों की मजदूरी वहां 3.3 प्रतिशत बढ़ी जबकि ऊंचे पदों पर बैठे सर्वोच्चय 5 प्रतिशत के वेतन में 63.2 प्रतिशत वृद्धि हुई है।
अमेरिका में वास्तविक स्थिति यह है कि भले ही केंद्र सरकार ने प्रति घंटा न्यूनतम वेतन 540 रुपये तय किया हो, परंतु वहां महामारी से पहले 5.30 करोड़ कामगार (44 प्रतिशत) कम वेतन वाले थे। पर उन्हें औसत मजदूरी 740 रुपये प्रति घंटा मिलती थी जो न्यूनतम मजदूरी से लगभग डेढ़ गुना है।
अमेरिका में मजदूरी में पिछले 40 वषों में मात्र 3.3 प्रतिशत वृद्धि का अर्थ है मजदूरी में ठहराव। अमेरिका के कामगारों में इसके खिलाफ आक्रोश है। मेसाचुसेट् में 700 से अधिक स्टाॅफ नर्स 8 मार्च से हड़ताल पर हैं। फूड कंपनी फ्रिटो ले के कर्मचारी कम वेतन के विरोध में 5 जुलाई से हड़ताल पर हैं। वर्जीनिया में वोल्वो के कर्मचारी बेहतर वेतन और बोनस के लिए अप्रैल में हड़ताल पर रहे। उन्होंने जुलाई में फिर काम बंद कर दिया। कैलिफोर्निया में कृषि फर्मोंं के कामगार ऊंचे मजदूरी के लिए काम छोड़ रहे हैं। नियोक्ता नहीं चाहते कि यूनियनें इस आक्रोश को लामबंद करं और मजबूत बनें। इसकी काट के लिए, जाॅर्जटाउन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मेकार्टिन कहते हैं कि कुछ कंपनियों ने अधिक मजदूरी और सुविधाओं की घोषणा शुरू कर दी हैं।
कामगारों के बागी तेवरों के बाद कंपनी मालिकों, नियोक्ताओं को वेतन बढ़ान, बोनस बढ़ाने, काॅलेज ट््यूशन फीस जैसी सुविधाएं देने के लिए मजबूर होना पड़ा। सबसे कम वेतन वाले कामगारों की मजदूरी पिछले वर्ष के मुकाबले इस साल मार्च में 26 प्रतिशत बढ़ी।
इसके विपरीत भारत में आज मजदूरों की स्थिति यह है कि मजदूरी में वेतन वृद्धि की बात तो सोची ही नहीं जा सकती। जो रोजगार और जो मजदूरी मिल रही है वही बची रहे तो गनीमत है।
भारत में, कुछ रिपोर्टों के अनुसार, पहले लाॅकडाउन के कारण लगभग 12.2 करोड़ लोगों का रोजागर छिन गया था जिसमें प्रवासी मजदूर, शहरों के दिहाड़ी मजदूर, रेहड़ी एवं खोमचे वाले, होटल एवं पर्यटन क्षेत्र में काम करने वाले, निजी उद्योग, कंपनी, परिवहन, मनोरंजन व्यवसाय और निर्माण उद्योग में काम करने वाले मजदूर/कर्मचारी शामिल हैं। अभी भी इन क्षेत्रों में स्थिति सामान्य नहीं है। ज्यादातर लोग अभी भी बेरोजगार हैं। सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार, कोरोना की दूसरी लहर में अन्य के अलावा एक करोड़ वेतनभोगी लोगों की भी नौकरियां छूट गई।
बेरोजगारी की खौफनाक हालत को 25 जुलाई 2021 के अखबारों में आई इस खबर से समझा जा सकता है कि कुछ समय पहले कोलकाता के नीलरतन सरकार मेडिकल काॅलिज अस्पताल ने जब अपने मुर्दाघर में मुर्दों को संभालने के लिए डोम के छह पदों के लिए अर्जियां निमंत्रित की तो लगभग आठ हजार आवेदन आए। आवेदनकर्ताओं में 100 इंजीनियर, 500 पोस्ट गेजुएट, 2,000 ग्रेजुएट भी शामिल थे। अनेक महिलाओं ने भी अर्जियां दी थी। डोम के लिए आठवीं तक की शिक्षा मांगी गई थी। इसी प्रकार मालदा के एक अस्पताल में जब इसी पद के लिए अर्जियां मांगी गई तो आवेदनकर्ताओं में एक पीएचडी भी था।
रोजगार छूटने, आमदनी घटने और बेरोजगारी और ऊपर से जानलेवा महंगाई के इस दौर में कोई नहीं जानता देश के कितने करोड़ लोगों को अपनी थाली में कटौती करनी पड़ रही हैं, कितने लोगों को आधापेट और कितने लोगों को भूखे सोना पड़ता है। किसी के पास थोड़ी-बहुत जमापूंजी थी जो घर की जरूरतों को पूरा करने या कोरोना के इलाज में खर्च हो चुकी है, थोड़ी-बहुत जायदाद थी या गहने थे सबकुछ बिक रहा है। एक शोध के अनुसार, रोजगार और आमदनी पर पड़े असर के कारण 10 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे पहुंच गए हैं।
बेरोजगार और बारोजगार-सभी के बीच भारी बेचैनी है। वे छटपटा रहे हैं। करें तो क्या करें?
(अमेरिका संबंधी जानकारी दैनिक भास्कर, जबलपुर (25 जुलाई) में एलाना सैमुअल्स के लेख ‘‘महामारी के बाद बेहतर सुविधाओं के लिए कई कंपनियों के कर्मचारी हड़ताल पर गए’’ से उदृधित)