राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई में कम्युनिस्टों की महत्वपूर्ण भूमिका
- अंग्रेजों के खिलापफ 1942 में किसान-मजदूर एवं नौजवानों में उभरता आक्रोश
प्रताप नारायण सिंह
भारत में कांग्रेस पार्टी की स्थापना के पूर्व ब्रिटिश शासकों ने हिन्दू-मुसलमान दोनों पर एक ही समान दमन और शोषण बदस्तूर जारी रखा था। हिन्दू और मुसलमान की एकता को एक सूत्रा में बाँध्ने के लिए स्वयं आगा खाँ ने हिन्दू और मुसलमानोें से 1884 में कहा था- ‘‘क्या तुम उसी ध्रती के बासी नहीं हो? क्या तुम उसी धरती पर जलाये या दपफन नहीं किए जाते। क्या तुम उसी के मैदान पर पांव रखकर नहीं चलते, उसी ध्रती पर नहीं रहते? याद रखो कि हिन्दू और मुसलमान शब्द धर्मिक पहचान के लिए है, अन्यथा सभी मनुष्य चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान हों, यहाँ तक कि इस देश में रहने वाले इसाई हों, इस विशेष अर्थ में एक है कि वे उसी एक राष्ट्र के हैं। तब विभिन्न सम्प्रदाय के लोगों को एक राष्ट्र कहा जा सकता है। उनमें से एक-एक को, सभी को देश के हित के लिए संगठित होना चाहिए, जो समान रूप से सभी का है।’’ इस कथन से मुूसलमानों के एक बड़े वर्ग में साम्प्रदायिक आधर पर सोचने का एक नया अवसर पैदा हुआ। जब 1885 ई. में राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की स्थापना हुई, उस समय कांग्रेस के अन्दर तत्कालीन पढ़े लिखे मुसलमानों ने भी कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण करके ब्रिटिश शासन के खिलापफ मुकम्मिल एकता के साथ संघर्ष के लिए तैयार हो गए थे।
विश्वयुद्ध की घोषणा
1914 ई. में जब प्रथम विश्वयुद्ध की घोषणा हुई, उस समय ब्रिटिश शासक जर्मनी के खिलापफ युद्ध की घोषणा से स्वतः भारत उस युद्ध की परिधि में आ गया था। इस विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों से कोई सलाह नहीं ली थी। भारत की जनता और भारत के संसाध्नों का उपयोग करने लगे। इस युद्ध में भारत से दस लाख भारतीय नौजवानों को युूद्ध के मोर्चे पर भेजा गया। इनमें दस प्रशित भारतीय जवानों की मौत हुई थी। इस युद्ध में आर्थिक व्यय जितना हुआ उससे भारत के उपर ऋण में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। अर्थात् ब्रिटिश शासक अपनी हिपफाजत में भारतवासियों पर ऋण का पहाड़ लाद दिया था। इस ऋण की वसूली भारतीय जनता से निर्ममतापूर्वक वसूल किया था। इस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध में भारत का जन एवं ध्न की कापफी क्षति हुई थी।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान चीजों के दाम में बेशुमार वृद्धि की गयी थी। इससे आम जनता घोर संकट में पड़ गयी थी। वस्तुओं का संकट पूरे देश में उत्पन्न हो गया था। ब्रिटिश सरकार ने दूसरे देशों से आयात कर सामान मंगवाना प्रारंभ किया, लेकिन उसकी कीमत इतनी अध्कि थी कि जनता के समक्ष सामान उपलब्ध् रहने के बावजूद उसे वे खरीद नहीं पाते थे। युद्ध समाप्ति के बाद चीजों के दाम में बेतहासा वृद्धि हो गयी। भारतीय उद्योग बंदी के कगार पर आ गए। युद्ध लड़ते समय ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका, इटली एवं जपान ने कहा था कि यह युद्ध जनतंत्रा की हिपफाजत के लिए लड़ा जा रहा है। मगर इस युद्ध ने भारत में तबाही मचाकर रख दी थी। जिस दौर मे होमरूल और खिलापफत आन्दोलन शुरू हुआ था, उसी बीच नवम्बर 1917 में जारशाही के खिलापफ रूस में क्रांति हो गयी। बोलशेविकों ने जारशाही शासन व्यवस्था समाप्त कर दुनिया में पहले समाजवादी राज्य की स्थापना के बाद रूस ने एशिया के सभी देशों से साम्राज्यवादी व्यवस्था को छोड़ने की एकतरपफा अपील कर दी। इसका भारत सहित एशिया के अन्य देशों पर प्रभाव पड़ा। रूस ने एशिया के सभी देशों को मान्यता प्राप्त करने की घोषणा कर दी।
सत्याग्रह आन्दोलन
दक्षिण अप्रफीका में रंग-भेद के विरूद्ध संघर्ष के दौरान गांधीजी ने सत्याग्रह आन्दोलन के दर्शन का विकास किया था। इस आन्दोलन से उन्हें दक्षिण अप्रफीका में सपफलता मिल चुकी थी। उन्होंने भारत की सरजमीं पर पांव रखते ही कहा था कि ‘‘मैं पाप का विरोध् करूँगा लेकिन पापी से घृणा नहीं करूँगा।’’ संयोग ऐसा था कि उस समय बिहार के चम्पारण में किसानों पर अंग्रेजों का दमन चल रहा था। अंग्रेज किसानों की जमीन पर नील की खेती करने के लिए विवश कर रहे थे। नील को अंग्रेजों के हाथों बेचने की भी विवशता थी। चम्पारण के किसान नेता रामचन्द्र शुक्ल ने गांधी जी से मिलकर उन्हें सारी जानकारी दी। गांधी जी से आग्रह किया कि वे स्वयं चम्पारण पहुंचकर किसानों की मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करें । गांधीजी चम्पारण के किसानों की पुकार सुनकर चम्पारण की ध्रती पर पहुँच गए। गांधी जी ने जेल की ध्मकियों के बावजूद किसानों की फरियाद को सुनकर विधिसम्मत जाँच की।
गांधी जी ने किसानों की ऐसी गवाहियाँ पेश की जिससे ब्रिटिश सरकार को विवश होकर एक जांच अयोग की नियुक्ति करने के लिए विवश होना पड़ा। उस आयोग में गांधी जी भी एक सदस्य के रूप में नियुक्त किए गए। किसानों के इस आन्दोलन में राजेन्द्र प्रसाद, मजहरूल हक, महादेव देशाई और के.बी. कृपलानी जैसे अन्य युवक भी शामिल थे।
ऐसा ही मौका 1918 ई. में गुजरात जिला के काहिरा नामक स्थान पर जब उस जिले की फसलें नष्ट हो चुकी थी, बावजूद इसके अंग्रेज अध्किारियों ने पूरी लगान उन लोगों से वसूलने का निर्णय किया था। गांधीजी को जब इसकी सूचना मिली तो वे गुजरात के उस स्थान पर पहुँचकर किसानों को संगठित कर किसानों को सत्याग्रह करने का आह्वान किया।
गांधीजी ने एलानकर दिया कि लगान नहीं दिया जायगा। इसके लिए किसी भी परिणाम को भुगतने के लिए किसान तैयार है। अन्त में सरकार को किसानों से समझौता के लिए विवश होना पड़ा। इस घटना की उपलब्धि अहमदाबाद के यशस्वी बैरिस्टर सरदार बल्लभ भाई पटेल सत्याग्रह आन्दोलन से बहुत प्रभावित होकर गांधीजी के प्रबल अनुयायी बन गए। इसके बाद गांधीजी का ध्यान 1918 ई. में अहमदाबाद के मिल मजदूरों की समस्याओं की ओर गया। मिल मालिकों के खिलाफ मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व किया। उन्होंने उपवास सत्याग्रह प्रारंभ कर दिया। उस सत्याग्रह में मजदूरों ने भी भाग लिया था। मिल मालिकों ने इस आन्दोलन से घबराकर हड़ताल के चैथे दिन ही मजदूरों की मांगें स्वीकार कर ली। 35 प्रतिशत मजदूरी में वृद्धि करने की घोषणा कर दी गयी। इस आन्दोलन ने गुजरात की ध्रती पर गाँधी का नाम रौशन कर दिया।
जालियांवाला बाग की दुखद घटना
उसके बाद गांधीजी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता, छूआ-छूत निवारण तथा महिलाओं की मर्यादा के उत्थान को अपने संघर्ष का प्रधन मूुद्दा बनाया। इसी बीच अंग्रेजों ने राॅलेट एक्ट पारित किया। इस एक्ट से गांधीजी के धर्य का बांध् टूट गया। उन्होंने 6 अप्रैल 1919 ई. को पूरे देश में आम हड़ताल का आह्वान किया। यह अभूतपूर्व हड़ताल रही। 13 अप्रैल 1919 को जालियांवाला बाग की दुखद घटना घट गयी। इस घटना ने पूरे देश के नौजवानों एवं किसानों में स्वराज के लिए संघर्ष में उबाल पैदा कर दिया। 1984 में जब स्वयं मैं जलियांवाला बाग को देखा तो वह मैदान चारों ओर से उफँची दीवार के बने मकान से घिरा है। संकरा एक छोटा सा प्रवेश करने का रास्ता है। भीतर में एक बड़ा कुँआ है। उफँची दिवालों पर आज भी क्रूर डायर की अंग्रेजी फौज द्वारा चलाई गई गोलियाँ जाली से सुरक्षित दिखती हैं। वास्तव में यह हृदय विदारक घटना है। इस घटना से दुखी होकर रवीन्द्र नाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार से प्राप्त विशेष सम्मान को वापस करने की घोषणा कर डाली थी। जालियांवाला बाग की जघन्य घटना से गांधीजी प्रभावित होकर 1919 में अमृतसर में कांग्रेस के अधिवेशन में मोलाना आजाद, हकीम अजमल खां एवं हसरत मोहानी के नेतृत्व में खिलाफत समिति का गठन किया था। उसके अध्यक्ष गांधीजी चुने गए थे।
1920 ई. में स्वतंत्रता आन्दोलन के महान योद्धा बालगंगाधर तिलक के निधन से क्रांतिकारियों को काफी धक्का लगा था। तिलक के निधन के बाद क्रांतिकारियों ने ‘‘तिलक कोष’’ की स्थापना कर छः महीने के अन्दर करीब एक करोड़ रूपये इकट्ठा करने में सफल हो गए। उसके बाद देश के सभी धर्मनिरपेक्ष दलों ने गांधीजी के नेतृत्व में सत्य-अहिंसा के शस्त्र से अंग्रेजों का मुकाबला करने का संकल्प लिया। आन्दोलनकारियों ने वकीलों से अदालतों का, जनता से शिक्षण संस्थानों का विदेशी कपड़ों का एवं शराब की दुकानों का बहिष्कार करने का आह्वान किया था। उसी दौर में यह नारा दिया गया कि ‘‘शिक्षा प्रतिक्षा कर सकती है, लेकिन स्वराज नहीं।’’ ऐसे ही मौके पर देश के विभिन्न भागों में जामिया-मिलिया इस्लामियां, काशी तथा बिहार एवं गुजरात में विद्यापीठ जैसे राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों की स्थापना हुई। बिहार के मुंगर जिला के खगड़िया में नेशनल हाई स्कूल की स्थापना हुई थी, जो आज भी उसी नाम से सरकारीकृत है। आचार्य नरेन्द्र देव, राजेन्द्र प्रसाद, डा. जाकिर हुसैन एव सुभाष चन्द्र बोस आदि ने ऐसे राष्ट्रीय विद्यालयों में अध्यापन कार्य की जिम्मेवारी ली थी। आन्दोलन के बढ़ते चढ़ाव को देखकर महिलाओं ने भी परदे से बाहर आकर बड़ी संख्या में भाग लिया था।
अंग्रेजों का दमन भी उसी अनुपात में बढ़ने लगा। गांध्ीजी को छोड़कर सभी नेता जेलों में बंद कर दिए गए। देश भर के जेलों में रहने की जगह का संकट बढ़ गया। यह अलग से अंग्रेजों के लिए मुश्किल पैदा हो गयी। गांध्ीजी ने वारदोली में आन्दोलन करने का कार्यक्रम बनाया था। इसी दौर में उत्तर प्रदेश में चौरी-चौरा कांड हो गया। किसानों ने पुलिस थाना में आग लगा दी, जिसमें 22 सिपाहियों की जानें चली गयी। इस घटना से आहत होकर गांधीजी ने वारदोली आन्दोलन को स्थगित करने की घोषणा कर दी। आन्दोलन के स्थगित करने की जानकारी मिलने पर सुभाषचन्द्र बोस ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसे राष्ट्रीय विपत्ति कहा था। नेहरू जी भी इस निर्णय से हताहत हुए थे। एम.एन. राय ने इसे नेतृत्व की दुर्बलता कहकर संबोधित किया था।
अंग्रेजों ने आन्दोलकारियों के बीच पफूट डालने का षड्यंत्र करना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने मुसलमानों को बहकाकर साम्प्रदायिक दंगों में झोंक दिया। 1925 में दर्जनों दंगे हुए। 1926 में कलकत्ता में भयानक दंगे हुए। साइमन आयोग के रिपोर्ट के आधर पर 1922 से 1927 तक 112 दंगे हुए थे। इनमें 450 लोगों की मौत एवं 5000 लोग घायल हुए थे। कम्युनिस्ट आन्दोलन ने बंबई में मजदूरों की बीच साम्प्रदायिक दंगों को साम्प्रदायिक सद्भाव में बदलने की पूरी कोशिश की थी।
कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना
1925 ई. में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हो चुकी थी। कलकत्ता में आयोजित कांग्रेससर्वदलीय सम्मेलन के पूर्व कमयुनिस्ट पार्टी ने किसान-मजदूर दलों के अखिल भारतीय सम्मेलन का आयोजन कर कांग्रेस के द्वारा 1928 ई. में उपनिवेशिक राज की स्वीकृति की आलोचना की थी। साथ ही यह भी निर्णय लिया गया था कि 1929 में सुधरवादी हिृटले आयोग भारत आने पर मजदूर संगठन विरोध् करेगा। 1929 में गिरनी कामगार एवं रेल मजदूरों के संयुक्त आह्वान पर बंबई में आम हड़ताल हुई। इस प्रकार कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने अपने संगठन एवं जन संगठनों के द्वारा आन्दोलन विकसित करके अंग्रेजी सरकार को लगातार परेशानी में डाल रहे थे। फिर हड़ताल कलकत्ता एवं कानपुर में शुरू हो गयी। सरकार ने 33 नेताओं को सरकार के खिलाफ क्रांति करने के आरोप में गिरफ्रतार कर लिया। इसी बीच अंग्रेजों ने मेरठ षंड्यंत्र केश में कई क्रान्तिकारियों को फंसाकर उनके उपर मुकदमा चलाया गया। यह मुकदमा 1933 तक चलता रहा। उन्हें देश के विभिन्न जेलों में भेज दिया गया था। 1925 में उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध काकोरी षड्यंत्र केश में राम प्रसाद विस्मिल, रोशन लाल एवं अस्फाक उल्ला को फांसी की सजा दी गयी। 30 अक्टूबर को साइमन आयोग जाँच के लिए जब लाहौर पहुँचा तो लाला लाजपत राय के नेतृत्व में ‘‘साइमन वापस जाओ’’ का नारा देकर विरोध् प्रदर्शन किया गया।
पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर निर्ममतापूर्वक लाठियां बरसाई जिसमें लाला लाजपत राय शहीद हो गए। इसके जिम्मेवार तत्कालीन पुलिस अधीक्षक सांडर्स को हिन्दुस्तान समाजवादी रिपब्लिकन संघ के सदस्य एवं पंजाब नौजवान भारत सभा के नेता भगतसिंह ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। उस समय तो भगतसिंह अपने साथियों के साथ बचकर निकल गए। दिल्ली स्थित फिरोजशाह कोटला के निकट क्रांतिकारियों की बैठक में यह नारा दिया गया कि यह ‘‘जनता द्वारा जनता की क्रांति है।’’ पुनः 8 अप्रैल 1929 को यह निर्णय लिया गया कि केन्द्रीय एसेम्बली में प्रतीक के रूप में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त दर्शक दीर्घा से सरकारी कुर्सियों की ओर बम पफेंकेगा और रेड पंपफलेट पर्चा भी पफेकेंगा। ऐसा ही किया गया। उसमें कोई हताहत नहीं हुआ। वह बम ध्माके के सिवा मारक नहीं था। ऐसी ही घटना कम्युनिस्टों ने भी मेरठ में करने का प्रयास किया था। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त एसेम्बली के अंदर ही गिरफ्रतर कर लिए गए। उनपर जो मुकदमा किया गया था, उसका नाम लाहौर षंड्यंत्र केश दिया गया। इसे जानने की जरूरत है कि 1925 के बाद से भगतसिंह एवं उनके साथियों ने अपनी विचाराधरा को माक्र्सवादी की मूल विचारधरा से जोड़ लिया था।
रूस पर आक्रमण
द्वितीय विश्व युद्ध 1941 तक अपनी शिखर पर पहुँच चुका था। ब्रिटेन को पराजित करते हुए यूरोप के अधिकांश देशों को रौंदते हुए हिटलरी सेना ने 1941 में ही रूस पर आक्रमण कर दिया। रूस बहादुरी से हिटलर की सेना का मुकाबला करते हुए उनके ज्वार को मध्मि कर दिया। इसी क्रम में अमेरिका भी रूस के साथ खड़ा हो गया। इस बीच ब्रिटिश सरकार ने भारत को स्टैफोर्ड के द्वारा एक प्रस्ताव भेजा था कि युद्ध समाप्ति के बाद उपनिवेशिक राज्य का दर्जा दे दिया जायगा। इस प्रस्ताव को भारत के सभी राजनीतिक दलों ने अस्वीकार कर दिया था। दूसरी ओर रूस और अमेरिकी सेना ने मिलकर जर्मनी सेना को वापस लौटने के लिए मजबूर कर दी थी। इस घटना से भारत के किसानों, मजदूरों एवं नौजवानों में आजादी की लड़ाई को मुकाम तक पहुँचाने के लिए उत्साह और उमंग का संचार तेजी से होने लगा। परिणाम यह हुआ कि 1942 में अखिल भारतीय किसान सभा के आह्नान पर देश के किसानों एवं मजदूरों ने ‘‘भारत छोड़ो’’ नारा के साथ मैदान में उतर गए। 9 अगस्त को ‘‘भारत छोड़ो’’ प्रस्ताव के विरोध् में अंग्रेजी सरकार ने नेताओं की गिरफ्रतारी करना प्रांरभ कर दिया। यह खबर शहरों से लेकर गाँवों तक चिंगारी की तरह फैल गयी। सब जगह हड़ताल शुरू हो गयी। रेल की पटरियां उखाड़ी जाने लगी, टेलीफोन के तार काट दिए गए। लाठी, गोली चलने लगी।
भारत को स्वाधीनता देने का प्रस्ताव
बड़े पैमाने पर आन्दोलनकारियों को जेल के सीखचों में बंद कर दिया गया। विद्रोह असपफल हो गया। मगर 1942 का स्वतःस्फूर्त आन्दोलन ने अंग्रेजों को यह सोचने के लिए विवश कर दिया कि भारत को आजादी दिए बिना अब दूसरा विकल्प नहीं है। इसी बीच माउन्टवेटेन नए वायसराय बनकर भारत आए थे। माउन्टवेटेन ने ब्रिटिश सरकार को इस आन्दोलन के पूर्व भी इंग्लैंड में भारत को स्वाधीनता देने का प्रस्ताव दिया था, जिसे ब्रिटिश सरकार ने खारजि कर दिया था। माउन्टवेटेन अंग्रेजों की पुरानी नीति फूट डालो और राज करो को अपनाते हुए एक प्रस्ताव दिया कि आजादी भारत और पाकिस्तान के रूप में दी जा सकती है। इसे मानने के लिए राष्ट्रीय नेता तैयार नहीं थे। कहा गया है कि सिंह के शिकार से लौटा शिकारी रास्ते में हिरण पाकर उसे नहीं छोड़ता है। यही हालत तत्कालीन भारत के नेताओं की हुई। हमें आजादी तो मिली लेकिन भारत का बंटवारा करके। आज भी अंगे्रजों द्वारा आजादी के वक्त दिए गए सौगात को भारत की जनता भुगत रही है। साम्प्रदायिकता का पौध भारत में अंग्रेजों ने लगाया। अंग्रेज सात समन्दर पार गया लेकिन वह साम्प्रदायिकता का पौध आज भी तेजी से फल-फूल रहा है। दोनों देशों के बीच आज भी अच्छे सम्बन्ध् नहीं बन पाए हैं। देश के अन्दर भी आज साम्प्रदायिक तत्वों के द्वारा साम्प्रदायिक सद्भाव को कमजोर करने की लगातार कोशिश हो रही है। जिस आजादी के लिए कितने क्रांतिकारियों ने फांसी के तख्ते पर हंसते हुए अपने को बलिदान कर दिया। कितने जेलों में दम तोड़ दिए। कितने गोलियों के शिकार हुए। इन्हें याद रखने की जरूरत है। क्रांतिकारियों की शहादत को देशवासी उनके सम्मान में आज भी नतमस्तक है।