राज्य के खिलाफ राजनीतिक आरोप तथ्यहीन, किसानों का कल्याण और केरल का तरीका
बिनोय विश्वम
पिछले एक महीने से अधिक समय से अपनी मांगों को लेकर किसान दिल्ली की सीमाओं पर डटे है। किसानों ने एक नया इतिहास ही रच दिया है। कन्क्रीट के अवरोधक, कांटेदार तारों के सड़कों पर लगाए गए जाल, पुलिस द्वारा पानी की बौछारें-कोई भी अवरोधक उन्हें दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचने से नहीं रोक सके। दिल्ली की भयानक ठंड भी उन्हें कमजोर नहीं कर सकी। वे दृढ़ संकल्प और स्पष्ट इरादे के साथ दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर जमे हैं। सिंधू हो या टीकरी, गाजीपुर हो या नोएडा या फिर शाहजहांपुर-हर कहीं हजारों की संख्या में किसान जमा है। उन्होंने ऐसे कठिन हलात में भी जीने का एक तरीका बना लिया है। दिल्ली की सीमाओं पर डटे बैठे इन हजारों-हजार किसानों को देखकर, 2011 में अमरीका में उभरे ‘‘आॅक्युपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन की याद ताजा हो उठती है जिसके दौरान नारा दिया गया थाः ‘‘हम 99 प्रतिशत हैं’’।
अदम्य दृढ़ -संकल्प
सरकार ने सोचा होगा कि दो-चार दिन या हद से हद एक सप्ताह बाद किसान थक-हारकर अपने गांवों को लौट जाएंगे। ऐसा नहीं हुआ। किसान वापस जाने को तैयार नहीं हैं जब तक उनकी मांगें पूरी न की जाएं। किसान-संघर्ष के कुछ स्थानों पर जाकर मैंने जो कुछ देखा, उसके आधार पर मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि किसानों का यह आंदोलन आजादी के बाद अपनी तरह का अद्वितीय आंदोलन है। उन्होंने वहां अपने लिए जरूरी सभी चीजों-भोजन, उठने-बैठने-सोने का ठिकाना, साफ-सफाई, नहाने-धोने-हर चीज का इंतजाम किया है। उनमंे बड़ी संख्या में युवा है, अनेक वृ( किसान और महिला किसान है। उनमें से जिससे भी मैंने बातचीत की, हर कोई जोश और उत्साह से लबरेज था। वे कृषि को अपनी संस्कृति मानते हैं और कृषि की अपनी इस संस्कृति की रक्षा के लिए अदम्य दृढ़ संकल्प के साथ बैठे हैं। जमीन और प्रकृति से उनकी नजदीकी ने उन्हें फौलादी ताकत दी है।
वे एक दूसरे की मदद करते हुए शांत एवं संयत तरीके से राजधानी की सीमाओं पर डटे हुए हैं।
सरकार के लाल बुझक्कड़ किसानों के संबंध में ;संभवतः जान-बूझकरद्ध अलग-अलग तरह की बातें कह रहे है। अन्नदाताओं के इस संघर्ष का सामना करने के लिए अवश्य ही वे अपनी राजनीति बना रहे होंगे। उनमें से कुछ बड़े हठ के साथ कह रहे हैं कि इन तीन कृषि कानूनों पर अमल होगा, इसके बारे में कोई काॅम्प्रोमाइज नहीं किया जा सकता। कुछ ऐसे भी हैं जो कह रहे हैं कि यदि आवश्यक हुआ तो इन पर पुनर्विचार किया जा सकता है, परंतु केवल दो साल बाद। इन लोगों की बातों पर ज्यादा गौर करने की जरूरत नहीं क्योंकि ये सभी एक खास विचारधारा की पाठशाला में प्रशिक्षण पाए लोग हैं। किसान आंदोलन को बदनाम करने के अपने अभियान के एक हिस्से के तौर पर सरकार के प्रचार-प्रबंधकों ने किसानों को ‘‘खालिस्तानी’’ और ‘‘शहरी नक्सलवादी’’ जैसे नाम दिए हैं।
परंतु ये धरतीपुत्र, जो अपने साथ के लोगों में आशा के बीज बोते है, हर तरह के उकसावे के बावजूद शांत एवं संयत हें। उनके संघर्ष, उनकी एकता, उनके धीरज और उनके आंदोलन की व्यापकता ने शासक गठबंधन को हिलाकर रख दिया है। किसानों का समर्थन करते हुए शासक गठबंधन-एनडीए से उसके एक घटक-शिरोमणि अकाली दल के पदचिन्हों पर चलते हुए उसके बाद एनडीए के एक अन्य घटक-राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी ने भी एनडीए को छोड़ दिया। हरियाणा में एनडीए की एक घटक पार्टी-जननायक जनता पार्टी ;जेजीपीद्ध भी किसानों के मुद्दे पर केंद्र सरकार के रवैये से नाराज चल रही है।
नरेन्द्र मोदी सरकार को उम्मीद थी कि किसान थक-हार जायेंगे और धीरे-धीरे मैदान छोड़ देंगे। उनकी समझ गलत हैं। संघर्ष पर डटे रहने का उनका संकल्प दिन-प्रतिदिन और अधिक मजबूत हो रहा है। अन्नदाताओं पर हमले की अगुआई करने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री सामने आए। उन्होंने आरोप लगाया कि आंदोलन राजनीति से प्रेरित हैं। उन्होंने कहा कि विपक्ष किसानों को भड़का रहा है और किसानों के कंधे पर बन्दूक रखकर सरकार को निशाना बना रहा है। अपने इस दुष्प्रचार अभियान के सिलसिले में उन्होंने केरल की एलडीएफ सरकार के खिलाफ भी उंगली उठायी।
केरल की स्थिति
केरल सरकार के खिलाफ उन्होंने जो भी आरोप लगाए हैं वे बेबुनियाद और सरासर झूठ है। उन्होंने कहा कि केरल में एपीएमसी कमेटियां ;एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटीद्ध नहीं हैंऋ मंडिया नहीं हैं और उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि केरल में न्यूनतम समर्थन मूल्य की अवधारणा नहीं है। जाहिर है, केरल में कृषि का क्या परिदृश्य है, प्रधानमंत्री ने उससे आंखें मूंद रखी हैं।
यह सच है कि केरल में एपीएमसी-नियंत्रित मंडियां नहीं है। पर इसका यह मतलब नहीं कि वहां किसानों के हितों का ख्याल नहीं रखा जाता। वास्तविकता यह है कि केरल में किसानों का हित अन्य किसी भी राज्य के मुकाबले कहीं अधिक रखा जाता है और स्वयं केरल की सरकार किसानों के हितों की रक्षा करती है।
केरल की सरकार किसानों के हितों के प्रति कितनी समर्पित है उसे इस बात से समझा जा सकता है:भारत सरकार ने चावल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 18 रुपये प्रति किलो घोषित किया है, परंतु केरल की सरकार अपने किसानों से 27.48 रुपये प्रतिकिलो की दर से चावल की खरीद करती है। इसी प्रकार, केरल की सरकार खोपरा की खरीद भी घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से ऊंची दर पर करती है। केरल एकमात्र ऐसा राज्य है जो न केवल धान की खरीद करता है अपितु सब्जियों एवं फलों की भी खरीद सुनिश्चित खरीद करता है और अन्य किसी भी राज्य के मुकाबले बेहतर दाम देता है। केरल एक मात्र ऐसा राज्य है जहां 16 किस्मांे की सब्जियांे एवं फलों के भाव तय किए गए हैं और सरकार उन भावों पर खरीद की गारंटी करती है। कुछ उपजों के प्रति किलोग्राम भाव उदाहरण के तौर पर देखेंः साबुदाना ;12 रु.द्ध, केला ;30 रु.द्ध, लहसुन (130 रु.), अनानास (15 रु.), टमाटर (8 रु.), भिंडी (20 रु.), आलू (20 रु.), लोबिया (34 रु.), पत्तागोभी (11 रु.)।
केरल में किसानों के लिए फसल बीमे की व्यवस्था के साथ किसानों को 2,000 रुपये प्रति हेक्टेयर राॅयल्टी भी दी जाती है। किसानों को पेंशन दी जाती है जो भारत में अद्वितीय है। जब देश में किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं होने लगी तो केरल में 2006 में सरकार ने एक कर्ज आयोग बनाया जिसने किसानों को बचाने की दिशा में काम किया।
केरल की वामपंथी सरकार ने किसानों के कल्याण के लिए जो पहलकदमियां की हैं, किसी भाजपा- शासित राज्य में वैसे कदमों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन कदमों को जानने-समझने के बजाय प्रधानमंत्री ने केरल सरकार और वहां के किसानों के संबंध में राजनीतिक हमले करना शुरू कर दिया। वह जो कुछ कह रहे हैं, उसमें कारपोरेटों का प्रभाव स्पष्टतः नजर आता है। इस सम्बंध में भाजपा नेतृत्व में केंद्र सरकार के साथ बहस करने के लिए वामपंथ के पास नैतिक अधिकार है और राजनीतिक अधिकार भी।
हैरानी की बात है कि प्रधानमंत्री को बिहार नजर नहीं आता जहां मंडियों को 2006 में खत्म कर दिया गया था और उसके बाद किसानों की यह दुर्दशा हो गयी कि आज किसानों को मक्का का भाव 800-1000 रुपये प्रति क्विंटल मिलता है जबकि घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये प्रति क्विंटल है और निजी व्यापारी-जिनकी हिमायत प्रधानमंत्री लगातार कर रहे हैं-किसानों को बुरी तरह लूट रहे हैं। परंतु प्रधानमंत्री को बिहार नजर नहीं आता। जून 2020 में तीन कृषि अध्यादेशों के आने के बाद मध्यप्रदेश की 40 प्रतिशत मंडियों में कृषि उपजों की खरीद ‘‘शून्य’’ रही हैऋ यह भी प्रधानमंत्री को नजर नहीं आता।
कारपोरेट मुहर
यह है कृषि कानूनों की वास्तवकिता। दावा तो किया जाता है कि ये कानून किसानों की रक्षा करने और उनके सशक्तिकरण में मददगार हैं, परंतु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। इन कानूनों का मकसद भारतीय कृषि का कारपोरेटीकरण करना और काॅन्टैक्ट फाॅर्मिंग को बढ़ावा देना है। सरकार दावा करती है कि कि मंडियां बनी रहेंगी?
परंतु हकीकत यह है कि जब ये कानून लागू हांेगे और बड़ी कंपनियां किसानों से मंडियां से बाहर ही खरीद करने लगेंगी, तो मंडियां धीरे-धीरे खत्म होती चली जाएंगी। मंडिया खत्म हो जाएंगी तो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की व्यवस्था भी ध्वस्त हो जाएगी क्योंकि निजी कंपनियां/ प्राइवेट टेडर तो न्यूनतम समर्थन मूल्य देने से रहेंऋ आज नहीं देते और कल भी नहीं देंगे। देश के किसान इन बातों को अच्छी तरह समझ गए हैं। वे समझ गए हैं कि इन कानूनों से वे कारपोरेट मुनाफाखोरों के रहमोकरम पर रहने को मजबूर हो जाएंगेऋ इन कानूनों से कृषि अर्थव्यवस्था की कमर ही टूट जाएगी और उससे भारत की खाद्य सुरक्षा पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा।
ऐसी विभीषिका देश को झेलनी न पड़े, इसे टालने के लिए देश के अन्नदाता दिल्ली की सीमाओं पर डटे बैठे हैं। अन्नदाता किसान अपने आंदोलन के जरिये एक देशभक्तिपूर्ण और निस्वार्थ भूमिका का निर्वाह कर रहे है। उनके आंदोलन का उद्देश्य सही और देशहित में है। उचित होगा कि प्रधानमंत्री और उनकी सरकार इस बात को समझें।