ये दिन भी बीत जाएँगे

विचार—विमर्श

काल चक्र में उलझ के, मनुज हुए लाचार।
मानवता के भाव का, रख मन तू व्यवहार!!
यह संक्रमण काल निश्चित रूप से एक दिन समाप्त होगा। बची रहेंगी तो केवल यादें, कुछ साँसों के साथ तो कुछ अनुभूतियों में। अपने असंख्य प्रियजन दूर चले जा रहे हैं। दूर, बहुत दूर। कुछ सच में छोड़ गए, पर कुछ संसार में रहते हुए भी अश्रु देकर पराए हो गए।
दुख के इस पल में नित्य प्रति आँखें नम हो रहीं हैं। कठोर दिल भी पिघलकर द्रवित हो रहे हैं, पर “वाह रे अहम! तू तो सर्वोपरि है। तेरे लिए रिश्तों का कोई मोल नहीं। तेरा स्वार्थ ही तेरे लिए सब कुछ है।”
यह मेरी कल्पना में उभरते मात्र कुछ शब्द नहीं हैं, एक सच्चाई है। इस काल में देखा है मैने अपने कहे जाने वाले कई लोगों का स्वार्थ। उन्हें उसके दुख से कोई मतलब नहीं, जिसके सहारे वो आराम और इज्जत की ज़िंदगी जी रहे हैं । उनके खुद के दुख के समय जो रात – दिन एक कर देते थे, आज वही असहाय होकर वृद्ध माता – पिता के सहारे अपने कष्टमय जीवन से संघर्ष करते हुए एक – एक पल व्यतीत करने के लिए विवश हैं।
ऐसा नहीं कि हर इंसान की प्रवृत्ति और नियति इस प्रकार दूषित है। कुछ के लिए तो मानव मात्र का दुख उनका अपना दुख बन जाता है, परंतु कुछ महिलाएँ अपने असहाय पति तथा कुछ महिलाएँ पति और वृद्ध सास – ससुर को अकेले छोड़ बच्चों के साथ अपने माँ – बाप के घर रह कर आराम की जिंदगी जीने की आदत डाल रही हैं, अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ कर। उन्हें एहसास ही नहीं होता कि असहाय व्यक्ति अपने बच्चों के बिना, वृद्ध माता – पिता के साथ कैसी ज़िंदगी जी रहा होगा। नारी तो घर की शक्ति और रक्षक होती है, पर ऐसे को क्या कहें? आज दुख की घड़ी में कुछ पुरुष भी कर्तव्यहीनता का परिचय दे रहे हैं। उनकी संवेदनाएँ भी मृतप्राय हो चुकी हैं।
हे मानव! जागो, अपने लिए, अपनों के लिए, मानवता के लिए, इस धरती के लिए। दो कदम आगे बढ़ो। कुछ ज्यादा नहीं तो स्नेहपूर्ण दो शब्द ही बोलकर असहाय को निराशा से बाहर निकालो! किसी के होंठ पर मुस्कान बिखेरो, उसकी आत्मशक्ति बढ़ाओ और श्वाँस गति को अवरुद्ध होने से बचाओ!
डा० अतिराज सिंह
साहित्यकार,शिक्षाविद
बीकानेर,राजस्थान

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