मुझे किसान कहते हो
हां मैं ही हूं चिलचिलाती धूप में काम करता,
तेरे लिए बिना स्रोत के जलता,
मुझे पहचान सकते हो?
अरे हां, मुझे किसान कहते हो।
उगाता हूं बहुत कुछ,खाता नहीं,
तु भुखा रहे ये हमको भाता नहीं,
देखो यहां पानी फेंका जा रहा,
ठण्ड लग रही मुझे,
अपना छाता तान सकते हो?
अरे हां, मुझे किसान कहते हो।
कल सब बोल रहे थे,
आज क्या हुआ ये भारत को,
मैं दर्द से दर्दनाक बन रहा हूं,
हमारी वेदना जान सकते हो?
अरे हां, मुझे किसान कहते हो।
ये तालियां, थालियां और गालियां,
हमारे झोपड़ी के नहीं शायद,
हम भोर में ही पैर बजाते थे,
अकेले खेत पर जाते थे,
मेरे बातें सुनकर तुम भी,
सुनसान रहते हो?
अरे हां, मुझे किसान कहते हो।
ये तो कहीं नहीं होगा,
हम लड़े और सही नहीं होगा,
लगता है हर घर में भुखा शाम होगा,
अब यही अंजाम होगा,
आहटे सूनकर हमारी बंद कान रखते हो?
अरे हां, मुझे किसान कहते हो।
आलोक रंजन
कैमूर (बिहार)