पूंजीपतियों व सरकारों के गठजोड़ पर चोट करता नाटक “सोहो में मार्क्स”

मृगेन्द्र सिंह

पूंजीवादी सरकार चाहे जिसकी हो, देश पर अमीरों का राज होता है। पूंजीवाद अपने आप में इंसानियत के खिलाफ है, जो खुद बगावत को जन्म देता है।

यह इतिहास का ऐसा सच है जो समय के साथ और पुख्ता होता गया।

आप मार्क्स को नजरंदाज कर सकते हैं, लेकिन उसकी कही गई बातों को झुठला नहीं सकते।

नाटक “सोहो में मार्क्स” न सिर्फ इस बात की पड़ताल करता है कि वर्तमान में पूंजीवाद अपने घोर क्रूरतम रूप में सब कुछ निगलने को अमादा है, बल्कि इस बात की पुष्टि भी करता है कि कैसे पूंजीपतियों व सरकारों के गठजोड़ ने लोकतंत्र को मज़ाक बनाकर रख दिया है।

मनुष्य बेंचने व खरीदने की चीज बनकर रह गया है।
पूंजीवाद ने विज्ञान के क्षेत्र में चमत्कार किया है लेकिन मुनाफे की भूख ने असमानता की गहरी खाईं पैदा कर दी है।

नाटक का पात्र मानवतावादी दृष्टिकोण को सामने रखते हुए कहता है कि जिसने भी इस दुनिया में जन्म लिया है उसे जीने का हक है। रहने को मकान, आत्मसम्मान की रोटी, काम कम ज्यादा फ़ुर्सत।

अपराधी से ज्यादा ख़तरनाक है अपराध को जन्म देने वाली व्यवस्था और उसका नाश करना समाज की जिम्मेदारी है।

इस तरह के क्रांतिकारी विचारों के साथ ही बेरोजगारी, शोषण, गरीबी, भुखमरी, असमानता, पूंजीवाद की क्रूरता जैसे ज्वलंत सवालों के साथ दर्शकों को झकझोरता है।

1999 में हावर्ड जिन के लिखे नाटक में मार्क्स कहता है कि मेरे आलोचक कहते हैं मार्क्स मर चुका है।

अब उसके विचारों की कोई जरूरत नहीं, लेकिन दुनिया का क्या हाल है? क्या दुनिया बदल गई। नहीं।

डेढ़ सौ साल पहले जो समस्याएं थीं आज भी हैं। शोषकों और पूंजीपतियों के बीच संघर्ष जारी है।

हमारे देश में किसानों का आंदोलन इस बात का प्रमाण है।

दर्शकों को आंदोलित करने वाला यह नाटक इतिहास के झरोखों में ले जाकर वर्तमान से जोड़ता है कि आज भी महज एक प्रतिशत पूंजीपति दुनिया की कुल संपत्ति के 90प्रतिशत से ज्यादा हिस्से पर काबिज़ हैं।

यह नाटक मार्क्स के जीवन व संघर्ष पर प्रकाश डालने के साथ ही सोचने पर विवश करता है कि दुनिया अंधेरे की तरफ़ बढ़ रही या रोशनी की तरफ़।

सोहो में मार्क्स एक वैचारिक व बौद्धिक नाटक है। दर्शकों से धैर्य व समझ की मांग करता है।

कबीर राजोरिया के निर्देशन में दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय और शाकिर अली सदन (सीपीआई कार्यालय) भोपाल में भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा की यह प्रस्तुति सराहनीय रही।

मार्क्स के रूप में अनुपम तिवारी ने बेहतर काम किया है। उम्दा अभिनय और संवाद दर्शकों को बांधे रखता है।

अंतिम क्षणों तक नाटक अपनी गति में एक लय के साथ बढ़ता है। कबीर के म्यूजिक ने इसमें ऊर्जा भरने का काम किया है। सौरभ झा ने लाईट का संयोजन किया है। यह नाटक की दसवीं प्रस्तुति थी।

अनुपम और कबीर ने मिलकर जो मेहनत की है यह निर्देशन और अभिनय में साफ नज़र आता है।

मुझे यह नाटक दूसरी बार देखने को मिला और यह दावे के साथ कह सकता हूं कि जिस लगन और प्रतिबद्धता के साथ इप्टा अशोक नगर के साथी लगे हुए हैं, यह नाटक कला की दुनिया में एक मुकाम हासिल करेगा।

इस विपरीत समय में क्रांतिकारी विचारों को अभिनय के जरिए लोगों के बीच पहुंचाने के लिए भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा को सलाम।

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