न्यायपालिका और सरकारों के बीच मतभेदः संसदीय लोकतंत्र के लिए गंभीर चुनौती

अतुल कुमार अनजान
कोरोना काल के दौरान भीषण महामारी से देश की केन्द्र, राज्य सरकारों की नीतियों और कार्य प(तियों पर न्यायपालिका ने गहरा सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। इस महामारी से निपटने के लिए कुछ कदम तो बेहतर उठाए गए हैं। लेकिन घोषणाओं पर घोषणाओं ने माहौल को संजीदा नहीं रहने दिया। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों सहित मंत्रिमंडल के मंत्रियों द्वारा लगातार नई-नई घोषणाओं ने कार्यपालिका को पंगु कर दिया है। एक घोषणा पर कार्य शुरू ही नहीं होता कि प्रधानमंत्री की नई घोषणा, पुरानी घोषणा के लागू होने में रोड़ा अटका देती है। बयान बहादुरों की घोषणाओं से जनता के मन में अविश्वास की भावना मजबूत होती जाती है।

देश के सर्वोच्च न्यायालय सहित आठ राज्यों के उच्च न्यायालयों ने केन्द्र एवं राज्य सरकारों की कार्यप(ति से खुली असहमति व्यक्त करके यह बता दिया है कि कोरोना में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। मद्रास हाईकोर्ट ने कोरोना वायरस के दौर में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव कराने के चुनाव आयोग के फैसले पर यहां तक टिप्पणी कर दी कि उनके ऊपर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी तार्किक टिप्पणी देकर चुनाव आयोग को अपनी सम्पूर्ण कार्य प(ति पर पुनर्विचार करने का एक अवसर प्रदान किया है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार द्वारा जिस प्रकार के हलफनामे सुप्रीम कोर्ट में पेश किए जा रहे हैं, उससे टकराव की स्थिति पैदा होती है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान के तहत दिए गए व्यक्ति के मौलिक अधिकारों और सरकार के दायित्व की निशानदेही करने के बावजूद प्रधानमंत्री की नीतियों में पारदर्शिता का घनघोर अभाव है, प्रधानमंत्री केयर फंड में कहां से धन आया, किस-किस ने धन दिया और किस-किस मद में कोरोना प्रभावित लोगों के लिए खर्च किया गया, इसकी जानकारी देश की जनता को नहीं है।

वेंटिलेटर के लिए फंड से जो धनराशि दिए जाने का ऐलान किया गया उससे अभी तक पूरे वेंटिलेटर भी प्राप्त नहीं हुए हैं। विभिन्न देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, व्यावसायिक समूहों और व्यक्तिगत सहयोग राशि देने वालों की जानकारी हासिल करना प्रत्येक भारतीय का अधिकार है। प्रधानमंत्री इस अधिकार को छीन कर बैठे हैं।

कोरोना की जंग सरकार और जनता आपसी विश्वास से ही जीत सकती है। पीड़ितों के मनोबल को ऊंचा रखने के लिए यह एक बहुत आवश्यक और कारगर दवाई है, जिसे प्रधानमंत्री और उनकी सरकार और राज्य सरकारें जबर्दस्ती से समेटे हुए बैठी हैं। न्यायपालिका ने इस बिन्दू को गहराई से समझा है।

उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट की इलाहाबाद बेंच ने चुनाव आयोग और सरकार का नकाब उठा दिया। प्रदेश की योगी सरकार ने क्यों इतना विशाल चुनाव पंचायत करवाकर 23 करोड़ के उत्तर प्रदेश के ग्रामीण जीवन को कोरोना की आंधी में झोंक दिया। फलस्वरूप, आधिकारिक तौर पर 700 से अधिक पंचायत चुनाव में जुटे अधिकारी-मतदान कर्मी कोरोना से मारे गए।

उनके परिवार को एक-एक करोड़ रूपए का मुआवजा देना अत्यंत उचित है। ग्रामीण जीवन में कोरोना से हुई मौतों का कोई लेखा-जोखा नहीं है। ग्रामीण क्षेत्र में सरकारी अस्पतालों में कोरोना जांच और दवाई नहीं है। उन्नाव और कानपुर में गंगा तट के किनारे हजारों लोगों को जलाने के बजाय गाड दिया गया हैं, इसकी भयानक खबरें सारे देश में सुर्खियों में है।

लकड़ियों के अभाव में कोरोना संक्रमितों को जलाने के स्थान पर नदियों में प्रभावित किया जा रहा है, जो एक गंभीर चुनौती है। बिहार और उत्तर प्रदेश में ये लाशें कहां से आई, यह मतभेद का कारण तो हो सकता है। लेकिन सवाल है लोग तो मरे और प्रवाहित कर देने से जल भी प्रदूषित हुआ।

सरकार तत्काल न्यायपालिका के निर्देशों का आदर करते हुए इस दौर में अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करते हुए अगले दौर से भी निपटने की योजना बनाए। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का यह बयान कि भारत को विदेशों से उसकी साख के चलते ही सहयोग मिल रहा है, एक बचकाना बात है।

कुछ वर्षों पहले पाकिस्तान में प्राकृतिक आपदा के आने पर दुनिया के तमाम देशों ने मानवीय आधार पर उसे मदद की थी, तो क्या यह मान लिया जाए कि पाकिस्तान की दुनिया में बड़ी साख थी।

यह मदद इस कारण भारत को मिली कि दुनिया के सभी देशों में कोरोना महामारी से निपटने में मोदी सरकार की विफलता का संज्ञान लिया गया हैऋ दुनिया भर के मीडिया और पत्र-पत्रिकाओं में कोरोना पीड़ित भारत की दुखद खबरें आ रही हैं।

यह आपदा को अवसर समझने की भूल को सुधारने का वक्त है और संकल्प करने की जरूरत है कि आपदा में लोगों को राहत और सेवा प्रदान करना ही सरकारों का कर्तव्य है।

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