दलितों और अन्य कमजोर तबकों और किसान आंदोलन को समर्थन
खेत मजदूर यूनियनों का देशव्यापी संघर्ष का आहवान
नई दिल्लीः भारतीय खेत मजदूर यूनियन (बीकेएमयू), अखिल भारतीय कृषि मजदूर यूनियन (एआईएडब्ल्यूयू), अखिल भारतीय कृषि एवं रूरल मजूद एसोसिएशन, अखिल भारतीय संयुक्त किसान सभा (एआईएसकेएस) और अखिल भारतीय अग्रगामी किसान श्रमिक यूनियन ने संयुक्त रूप से दलित अधिकार दलितों के खिलाफ अत्याचार पर 21 दिसंबर 2020 को कस्टीट्यूशन क्लब एनेक्सी, नई दिल्ली में एक राष्ट्रीय कन्वेंशन का आयोजन किया।
कन्वेंशन ने सर्वसम्मति से दलित अधिकार दलितों के खिलाफ और अन्य कमजोर तबकों के खिलाफ अत्याचार पर प्रस्ताव पारित कर देशभर में कार्रवाई प्लान शुरू करने का आहवान किया। कन्वेंशन में देश के विभिन्न हिस्सों से आये 300 प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
कन्वेंशन की अध्यक्षता पूर्व सांसद एवं बीकेएमयू के पूर्व महासचिव नगेन्द्र नाथ ओझा, एआईएडब्ल्यूय के महासचिव बी वेंकट, एआईएआरएलए के अध्यक्ष और पूर्व सांसद रामेश्वर प्रसाद, एआईएसकेएस के असित गांगुली और अखिल भारतीय अग्रगामी किसान श्रमिक यूनियन के गौरीव माहेश्वरी ने की।
कन्वेंशन का उद्घाटन विजवाडा विल्सन ने किया। बीकेएमयू के सचिव वी एस निर्मल ने विषय परिचय पर भाषण दिया और एआईएडब्ल्यूय के अध्यक्ष सांसद ए राघवन ने प्रतिनिधियों का स्वागत किया। एआईएडब्ल्यूय के संयुक्त सचिव विक्रम सिंह ने प्रस्ताव पेश किये जिनका समर्थन एआईएआरएलए की राधिका मेनन ने किया।
वक्ता जब मुख्य प्रस्ताव पर बोल रहे थे तो उन्होंने ज्वलंत सामाजिक और आर्थिक सवालों और दलितों और अन्य कमजोर तबकों के सवालों पर राष्ट्रव्यापी संयुक्त अभियान के खडा करने पर जोर दिया। बीकेएमयू के महासचिव गुलजार सिंह गोरिया, नागेन्द्रनाथ ओझा, दरियाव सिंह कश्यप, फूलचन्द यादव, देवी कुमारी (बीकेएमयू), रामेश्वर प्रसाद, गोपाल रविदास एमएलए (एआईएआरीएलए), एआईएडब्ल्यू के बी वेंकट, सुनीत चोपडा, बृजलाल भारती, आर रामूलू, नत्थू प्रसाद, एआईएकेएसयू के अमरेश कुमार और एआईएसकेएस के असित गांगुली ने कन्वेंशन को संबोधित किया। प्रस्तावों पर चर्चा में बडी संख्या में प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
कन्वेंशन में लिये गये निर्णयों के अनुसार पूरे देश में 14 सूत्रीय मांगपत्र के आधार पर संयुक्त विधानसभा मार्च के आयोजन किये जायेंगे।
कन्वेंशन में किसान आंदोलन के शहीदों की याद में श्र(ांजलि अर्पित करते हुए एक अलग से शोक प्रस्ताव पारित किया गया और किसान और आंदोलन की मांगों का पुरजोर समर्थन किया गया।
कन्वेंशन में पारित प्रस्ताव
भारतीय समाज में शोषणकारी और दमनकारी वर्ण तथा जाति व्यवस्था का एक लम्बा इतिहास है। सदियों से दलित सामाजिक बहिष्कार और आर्थिक शोषण दोनों के शिकार थे। ऐतिहासिक रूप से अस्पृश्यता के अभिशाप के साथ-साथ, दलितों के पास कोई भी सम्पत्ति रखने का अधिकार नहीं था। किसी न किसी रूप में, यह देश के अधिकांश हिस्सों में आज भी जारी है। आजादी के 70 से अधिक वर्षों के बीत जाने के बाद भी दलितों की स्थिति और जाति व्यवस्था में अधिक बदलाव नहीं आया है।
भेदभाव और वर्चस्व के स्वरूप भले ही कुछ हद तक बदले हों, लेकिन भूमि सम्बन्धों की वह बुनियादी संरचना नहीं बदली है, जिसके बदलने से अस्पृश्यता और जाति व्यवस्था को एक मजबूत धक्का लगता।
भारत में अनुसूचित जातियों की स्थितिःभारत की आजादी के सत्तर साल बाद भी, दलित, आर्थिक और सामाजिक स्थिति के मामले में समाज के सबसे निचले पायदान पर है। 2011 की जनगणना के अनुसार, दलित कुल आबादी के 16.6 प्रतिशत और ग्रामीण आबादी के 17.91 प्रतिशत हैं। दलित परिवारों का एक बड़ा हिस्सा ;58.9 प्रतिशतद्ध कृषि में संलिप्त ग्रामीण मजदूरों का है। उनका जीवन दुखों और अनादर से भरा हुआ है। उन्हें संसाधनों में उनकी वैध हिस्सेदारी से वंचित कर दिया जाता है। अपनी इच्छानुसार सामन्ती ताकतों द्वारा उनके श्रम का शोषण किया जाता है। एक बड़ी लड़ाई के बाद इस भेदभाव को हमारे संविधान में स्वीकार किया गया और समाज के समग्र विकास के लिए कुछ सकारात्मक कदमों का सुझाव दिया गया था। विचार यह था कि समाज के सभी तबकों के लिए शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक शक्ति तक समान पहुँच सुनिश्चित की जाए। विशेष रूप से उन लोगों के लिए, जो सामाजिक और धार्मिक कानूनों के द्वारा जानबूझकर अपने हिस्से से वंचित किये गये थे।
आरक्षण, जो महत्वपूर्ण सकारात्मक कदमों में से एक है, हालांकि यह दलितों के एक छोटे से हिस्से को सीमित लाभ पंहुचाने वाला कदम है, उसे भी लगातार कमजोर किया जा रहा है। यह आम प्रचलन है कि उसी संस्थान में सामान्य जाति से पदों को भर लिया जाता है, जहां सामाजिक रूप से वंचित तबकों के लिए आरक्षित पद व्यापक पैमाने पर खाली रहते हैं। केन्द्र सरकार के छह मंत्रालयों और विभागों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और ओ0बी0सी0 के लिए आरक्षित पदों में से 60 प्रतिशत से अधिक पद रिक्त हैं। ये मंत्रालय हैं -गृह, रक्षा, रेलवे, डाक विभाग, शहरी और आवास तथा परमाणु ऊर्जा। कार्मिक और लोक शिकायतों पर राज्यसभा की एक समिति द्वारा 4 मार्च, 2020 को संसद में प्रस्तुत जानकारी के अनुसार, इन मंत्रालयों में आरक्षित श्रेणी के लगभग 25,000 पद रिक्त हैं।
जातीय अत्याचारः स्वतंत्र भारत ने जातिगत अत्याचारों की एक लम्बी कहानी है, जिसमें अपने अधिकारों के लिए लड़ते हुए दलितों के नरसंहार भी शामिल हैं। इसमें किल्वेनमनी नरसंहार ;तमिलनाडुद्ध की घटना शामिल है, जहां उचित मजदूरी की मांग के चलते 1968 में प्रभुत्वशाली जाति के भूस्वामियों द्वारा 44 दलितों को जिंदा जला दिया गया था। उसके बाद 1991 में 13 दलितों का चुंदुरू ;आन्ध्र प्रदेशद्ध नरसंहार हुआ ।1996 में बथानी टोला ;बिहारद्ध आदि जातीय हिंसा का ही परिचायक है। क्राइम इन इण्डिया 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, देश में दलितों के खिलाफ अपराध की घटनाएं, सामान्य रूप से वैसे ही अपराध की घटनाओं की तुलना में कहीं अधिक संख्या में होते है। दलित पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ कई अपराध तो दर्ज भी नहीं हैं। अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ अपराधों में कुल मिलाकर 7.3 प्रतिशत की वृ(ि हुई है।
भाजपा का शासन और दलितः समाज में हाशिए पर रहने वाले तबकों पर अत्याचारों, सामूहिक बलात्कारों और भीड़ द्वारा हत्याओं में बढ़ोत्तरी, संकटग्रस्त नवउदारवादी व्यवस्था के तहत दलितों और उत्पीड़ित तबकों को हाशिए पर ढ़केलने की सरकार की परियोजना से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। केन्द्र और राज्य दोनों ही सरकारों द्वारा दलितों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है। अनुसूचित जातिध् अनुसूचित जनजाति ;अत्याचार निवारणद्ध अधिनियम, 1989 को पहले की सरकारों द्वारा भी पूरी तरह से लागू नहीं किया गया था, लेकिन भाजपा सरकार न केवल इसे कमजोर कर रही है, बल्कि उन अपराधियों को भी संरक्षण दे रही है, जो दलितों के खिलाफ हमलों की बढ़ती संख्या में अपना योगदान दे रहे हैं। देश में एक गम्भीर संकट मौजूद है, जहां भाजपा राज में दलितों और समाज के अन्य उत्पीड़ित तबकों के खिलाफ, और विशेषकर कि दलित महिलाओं के खिलाफ क्रूरता बढ़ती जा रही हैं।
उत्तर प्रदेश में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व वाली योगी सरकार के तहत एक सम्पूर्ण आपराधिक राज व्याप्त है, जो यूपी को दलितों तथा साथ ही साथ किसी भी विरोध की आवाज को आतंकित करने वाले प्रभुत्वशाली उच्च जातीय भूस्वामियों की प्रयोगशाला बना रहा है। पुलिस और प्रशासनिक ढ़ांचा इस सामाजिक वास्तविकता को प्रतिबिंबित करती है और केवल समाज के प्रभुत्वशाली तबकों की सेवा करती है। यहां हिन्दुत्व की राजनीति और दलितः दलितों के बीच भाजपा/आरएसएस के एजेण्डे का पर्दाफाश करना हमारा कर्तव्य है। आरएसएस का असली एजेण्डा, उनके सपनों के राष्ट्र, ’हिन्दू राष्ट्र’ बनाने के लिए राजसत्ता पर कब्जा करने का है। यह भी एक वास्तविकता है कि इन विभाजनकारी ताकतों ने हमेशा दलितों को अल्पसंख्यकों के खिलाफ इस्तेमाल किया है, लेकिन स्वयं दलितों के लिए इनकी व्यवस्था में कोई स्थान नहीं। वास्तव में, हिन्दू समाज में सुधार के लिए कई वर्षों के संघर्षों के बाद, भारतीय संविधान के जनक डाॅ. बीआर अम्बेडकर को मजबूर होकर दलितों से बौद्ध धर्म को अपनाने के लिए आह्वान करना पड़ा। हिन्दू कट्टरपंथियों ने स्वतंत्रता के बाद भी जनतांत्रिक सुधारों का लगातार विरोध किया है।
अपनी स्थापना के समय से ही आरएसएस ने एक ब्राह्मणवादी रुख अपनाया हुआ था, स्वतंत्रता के बाद उसने हिंदू कोड बिल में संशोधन का विरोध किया था। मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का भाजपा का विरोध भी इसी आधार पर था। आरएसएस पूरे मन से जाति व्यवस्था का समर्थन करती है। अपनी पुस्तक ’बंच आॅफ थाॅट्स’ में वर्णाश्रम व्यवस्था का महिमामण्डन करते हुए गोलवलकर ने ’राष्ट्र और उसकी समस्याएं’ शीर्षक के तहत लिखा, ’’समाज की परिकल्पना, सभी के द्वारा पूज्य सर्वशक्तिमान की चार स्तरीय अभिव्यक्ति के रूप में की गई है।’’ जाति व्यवस्था पर उसी अध्याय में उन्होंने कहा, ’’जातियां उन प्राचीन काल में भी थीं, जो हमारे गौरवशाली राष्ट्रीय जीवन में हजारों वर्षों तक बनी हुई हैं ….. वे सामाजिक एकजुटता के एक महान बंधन के रूप में काम करती हैं।’’ जब संविधान सभा ने भारत के संविधान को अंतिम रूप दिया, तब 30 नवम्बर, 1949 के अंक में अपने संपादकीय में आरएसएस के मुखपत्र ’आॅर्गनाईजर’ ने खेद प्रकट करते हुए लिखा, ’’लेकिन हमारे संविधान में प्राचीन भारत के उस अद्वितीय संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु के कानून स्पार्टा के लाइकुरगुस या फारस के सोलन से बहुत पहले लिखे गए थे। आज की तारीख तक उनके कानून, जैसे कि मनुस्मृति में वर्णित हैं, पूरी दुनिया में प्रशंसा पाते हैं और उन्हें स्वतः अनुपालन और स्वीकार्यता प्राप्त है। परन्तु हमारे संवैधानिक पण्डितों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है।”
भूमि के बुनियादी प्रश्नः ग्रामीण भारत में, व्यक्ति की ताकत और उसका दर्जा भूमि पर स्वामित्व और जोत के आकार से निर्धारित होता है। लगभग 60 प्रतिशत दलित परिवारों के पास खेती के लिए जमीन नहीं है, जबकि उसकी तुलना में बाकी आबादी के 40.1 प्रतिशत के पास भूमि का स्वामित्व है। भूमि-स्वामित्व वाले ग्रामीण दलित परिवारों में, केवल 0.6 प्रतिशत के पास चार हेक्टेयर से अधिक भूमि है। केवल 2.2 प्रतिशत ग्रामीण दलित परिवारों के पास 2.01 से 4 हेक्टेयर तक की भूमि है, जबकि गैर-दलित परिवारों के लिए यह प्रतिशत 8.5 है। इसी प्रकार, 4.4 प्रतिशत दलित परिवारों के पास 1.01 से 2 हेक्टेयर भूमि है, जबकि गैर-दलित, गैर-पिछड़े परिवारों के लिए यह प्रतिशत 10.8 है। दलित और आदिवासी आर्थिक और सामाजिक-सांस्तिक दोनों पहलुओं में समाज के सबसे निचले पायदान पर हैं। जनगणना 2011 के अनुसार, दलित कुल आबादी का 16.6 प्रतिशत और ग्रामीण आबादी का 17.91 प्रतिशत हैं।
भूमि सुधार और भूमि के स्वामित्व का एजेण्डा दलितों के संघर्ष से निकटता से जुड़ा हुआ है। यह सभी जानते हैं कि केरल, बंगाल, त्रिपुरा तथा जम्मू और कश्मीर राज्य को छोड़कर भारत में भूमि सुधारों को कमजोर तरीके से लागू किया गया है। लेकिन पिछले 25 वर्षों में जो हो रहा है वह और भी खतरनाक है। यहां भूमि सुधारों का उल्टा हो रहा है। भूमि नुकसान के खतरनाक अनुपात को तब समझा जा सकता है, जब कोई एनएसएसओ के 43वें दौर के सर्वेक्षण ;1987-88द्ध से लेकर एनएसएसओ के 68वें दौर के सर्वेक्षण ;2011-12द्ध के बीच भूमिहीन परिवारों के प्रतिशत की तुलना करता है। जब तक जमीन का सवाल हल नहीं होगा तब तक दलितों का संघर्ष सफल नहीं होगा और इस मुद्दे को उजागर करना हमारी जिम्मेदारी है क्योंकि जाति और पहचान की राजनीति वाले संगठन अकेले इस मुद्दे को नहीं उठाएंगे।
नवउदारवादी नीतियों का हमलाः आय के सीमित स्रोतों के साथ, भूमि स्वामित्व और संसाधनों के बिना, अधिकांश दलित लोग सरकार की सामाजिक कल्याण योजनाओं पर निर्भर हैं। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक के सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों पर ही उनका जीवन निर्भर करता है। ग्रामीण भारत में रोजगार उपलब्ध कराने के माध्यम से गरीबी उन्मूलन के लिए स्वयं मनरेगा एक महत्वपूर्ण औजार के रूप में विकसित हुआ है। दलितों के एक व्यापक बहुमत का पेट भरने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली एक महत्वपूर्ण कल्याणकारी कदम है। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद, सामाजिक कल्याण की योजनाओं के दायरे को लगातार कम किया जा रहा है। पिछले पच्चीस वर्षों के नवउदारवादी शासन का हमारा अनुभव, जनता पर इन नीतियों के घातक प्रभाव को उजागर करता है, विशेष रूप से दलितों समेत जनता के वंचित तबकों पर। सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पहले ही लक्षित प्रणाली में बदल दिया गया है, जिसका अर्थ है तमाम परिवारों को सरकारी सहयोग के दायरे से दूर ढकेल देना। भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने महामारी के समय का उपयोग नवउदारवादी एजेण्डे को लागू करने में तेजी लाने के लिए किया है। सार्वजनिक क्षेत्र का तेजी से निजीकरण किया जा रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण और व्यवसायीकरण को और आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाया जा रहा है।
नई श्रम संहिताओं और कृषि कानूनों के द्वारा करोड़ों श्रमिकों और किसानों के अधिकारों और आजीविका पर एक नया हमला किया जा रहा है। इसका अर्थ यह है कि वंचित तबके अधिक असुरक्षाओं, कम स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा और रोजगार के कम अवसरों के चलते और अधिक पीड़ित होंगे।
जातिगत उत्पीड़न के मुद्दों को उठाते हुए हमें जनता को एकजुट करना है, न कि उनको बांटना है जैसा कि पहचान की राजनीति करने वाले समूह आमतौर पर करते हैं। इसलिए, सामाजिक न्याय हेतु संघर्ष के लिए यह अनिवार्य है कि वे वर्गीय मुद्दे भी उठाये। यह सम्मेलन संघर्षों को तीव्र करने का संकल्प लेता है और मांग करता हैः
- दलितों पर अत्याचार को रोकने के लिए उपयुक्त कदम उठाओ। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ;अत्याचार निवारणद्ध अधिनियम को मजबूत किया जाए और इसका कार्यान्वयन सुनिश्चित किया जाए।
- दलितों के खिलाफ हमलों के मामलों में दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करो।
- असामाजिक गौरक्षक दलों पर प्रतिबंध लगाओ।
- मैला उठाने की प्रथा पर रोक लगाओ और इसके लिए मजबूर लोगों को सुरक्षित वैकल्पिक रोजगार प्रदान करो।
- दलित भूमिहीन परिवारों को प्राथमिकता के साथ भूमिहीनों को भूमि का वितरण किया जाए।
- प्री-स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक समान गुणवत्ता की मुफ्त शिक्षा सभी को प्रदान की जाए।
- शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक उपक्रम के निजीकरण को रोका जाए।
- निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू किया जाये और आरक्षित श्रेणी के तहत भर्ती में बैकलाग को भरा जाये।
- अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन राशि प्रदान की जाए। अंतर-विश्वास और अंतरजातीय विवाह करने वाले जोड़ों को सुरक्षा प्रदान की जाए और विशेष विवाह अधिनियम में एक महीने के नोटिस को यह सुनिश्चित करने के लिए निकाला जाता है कि इसके तहत शादी करने वाले जोड़ों को परेशान नहीं किया जाए।
- केन्द्रीय बजट में एससी उप-योजना को लागू करो।
- नई श्रम संहिताओं, नए कृषि कानूनों और बिजली संशोधन अधिनियम, 2020 को तुरंत रद्द करो।
- मनरेगा को ठीक से लागू किया जाए।
- कोरोना का टीकाकरण निशुल्क किया जाये ।
हम इसी आधार पर देश भर में एक व्यापक अभियान चलाने और इसी के इर्द-गिर्द मुद्दा आधारित अधिकतम सम्भव एकता बनाने के लिए सभी प्रगतिशील तबकों का आह्वान करते हैं।