दर्द ए अवाम
भीख सांसों की मांग बिलखते जा रहे हैं
ओढ़ सफेद चादर सब निकलते जा रहे हैं।
मौत के कुएं खोदकर छोड़ दिए गए कैसे ।
व्यक्ति वक्ष दुःखों से ही फटते जा रहे हैं…
अंबर भी चिताओं का धुआं अब पी रहा है
जैसे दमे के बीमार खांसी से तड़पते जा रहे हैं…
गूंजती सुबह शाम क्यों कानों में चित्कार है?
फुटपाथ पर मृतकों के अंबार लगते जा रहे हैं।।
फट रही छाती अब तो उफ्फ रसातल की
धरणी पर नरभक्षी खुलेआम घूमते जा रहे हैं।
ये नाखून पर लगे नीले निशान की गलती
“राज़” अब सांसों के तार उखड़ते जा रहे हैं।।
डॉ. राजकुमारी
नई दिल्ली