जापान के हिरोशिमा और नागासाकी परमाणु बम विस्फोट की पृष्ठभूमि और बाद

डाॅ. व्रजकुमार पांडेय

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में आधुनिकता की शुरूआत 1871 से मानी जाती है जब विस्मार्क ने जर्मनी का एकीकरण किया था। जर्मनी खंड खंड विखंडित थी। उसे एकजुट करने का श्रेय विस्मार्क को जाता है। उसने जर्मनी को एक सुदृढ़ता प्रदान करने का प्रयास किया। उसने यूरोप के महत्वपूर्ण देशों के साथ डुअल और ट्रिपुल एलांयसेंज कायम किये ताकि उसको किसी प्रकार की कठिनाई का सामना न करना पड़े। उसके बारे में कहा जाता था कि वह एक ही साथ पाँच गेन्दों से खेलता था जिसमें दो को हाथ में पकड़े रहता था और तीन को हवा में उछाले रहता था। उसे एक जादूगर भी कहा जाता था।

जर्मनी जब एक हो गई तो उस देश में भी औद्योगिक विकास तेजी से होना शुरू हुआ। वहाँ के उद्योगपतियों को भी अपना सरप्लस उत्पाद बेचने के लिए बाजार की जरूरत थी। विस्मार्क के विदेश नीति इसके खिलाफ थी। परिणामतः उसे सत्ता से हटना पड़ा। विस्मार्क की जगह जो दूसरा शासक आया उसने विस्मार्क की विदेश नीति को बदल दी। अब जर्मन के उद्योगपतियों ने भी दूसरे देशों की ओर अपना रूख किया। लेकिन पहले से ही ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल ने एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिकी देशों पर अपना उपनिवेश कायम कर रखा था। जर्मनी को इस हालत में संघर्ष करना पड़ रहा था। आखिरकार इन्हीं संघर्षों के कारण पहला विश्वयुद्ध हुआ। यह युद्ध विशुद्ध बाजार के लिए उपनिवेश स्थापित करने को लेकर हुआ था। यह युद्ध पांच वर्षों तक चला। इस युद्ध में जर्मनी की हार हुई। उसे युद्ध का अपराधी बताकर उसको सभी तरह से कमजोर करने के प्रयास फ्रांस और ब्रिटेन ने किये।

वर्साय की संधि हुई जिसमें जर्मनी के कोयला, लोहा और खनिज उत्पादों को ब्रिटेन और फ्रांस ने आपस में बांट लिया। उसकी सेना की संख्या निर्धारित की गई। दूसरा विश्वयुद्ध न हो उसके लिए लीग आॅफ नेशन्स की स्थापना हुई। लेकिन अमेरिका और सोवियत रूस उसमें शामिल नहीं हुए। लीग अमेरिकी राष्ट्रपति वाशिंगटन की प्रेरणा से बना था लेकिन अमेरिका की तटस्थता की नीति के कारण वह उसमें शामिल नहीं हो सका। लेनिन लीग को डकैतों का लीग कहते थे – इसलिए सोवियत रूस भी इससे अलग रहा। युद्ध के बाद वर्साय की संधि के द्वारा जर्मनी की जो दुर्दशा की गई थी उसका दंश और अपमान जर्मन जनता बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। हिटलर एक बढ़ई था जो पहले युद्ध में सैनिक के रूप में युद्ध में भाग लिया था। युद्ध में हार का बदला लेने के लिए उसने संकल्प किया। अपनी सेना बनाई और नात्सी पार्टी की स्थापना की। चुनाव में वह कुछ वोटों से जीत गया और जर्मन की संसद को खत्म कर दिया। वह एक तानाशाह की तरह काम करने लगा। सभी पार्टियों पर बैन लगा दिया। दूसरे देशों को दखल करने की ओर कदम बढ़ाना शुरू किया। वर्साय संधि के समय फ्रांस और ब्रिटेन में जिस तरह की आक्रमता थी – वह आगे बनी नहीं रह सकी। लुकानों और उसी तरह के अन्य समझौते हुए और जर्मनी के प्रति नरम रूख अपनाया जाने लगा। लेकिन जर्मनी के रूख में कोई कमी नहीं आयी। वह एक के बाद एक देशों को दखल करना शुरू किया। परिणामतः दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। दुनिया दो शिविरों मंे बंट गई। एक ओर मित्र राष्ट्र थे तो दूसरी ओर जर्मनी, इटली और जापान की फासिस्ट शक्तियां थीं। शुरू में सोवियत रूस युद्ध में शामिल नहीं था। बाद में उसे भी आना पड़ा।

सन् 1942 में जिस समय सोवियत रूस पर नाजियों का वीभत्स आक्रमण चल रहा था, उसी दौरान अमेरिकी शासकों के सैन्य आदेश पर ‘मैनहट्टन प्रोजेक्ट’ के नाम से पारमाणविक हथियारों को तैयार करने की एक योजना शुरू हुई। फार्मिर नामक वैज्ञानिक के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की टीम यूरेनियम अयस्कों से प्लूटोनियम को पृथक करने के रास्ते के प्रयासों में जुट गयी, फलस्वरूप परमाणु बम तैयार करने के तरीके विकसित हुए। अमेरिकी प्रशासन ने पूरी पृथ्वी के सभी यूरेनियम और थोरियम खदानों पर कब्जा करने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी, नाजियों के विरुद्ध युद्ध से उनका कोई विशेष लेना देना नहीं था। पारमाणविक हथियारों की धमकी के बल पर पूरी दुनिया पर अधिकार जमाना ही उनका लक्ष्य था। रूजवेल्ट के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति बने ट्रूमैन। जिस दिन हिटलर ने सोवियत संघ पर हमला किया, उस दिन संसद में ट्रूमैन ने कहा था, ‘‘देखता हूँ कि यदि युद्ध में जर्मनी जीत रहा है तो मैं सोवियत रूस की मदद करूँगा और रूस जीतता है तो जर्मनी की मदद करूँगा; एवं वे आपस में जितना संभव हो घातक युद्ध करें।’’

सन् 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध में फासीवादी जर्मनी के पराजय के बाद प्रेसिडेंट ट्रूमैन ने कहा था, ‘हम चाहें अथवा न चाहें लेकिन हमें स्वीकार करना ही होगा कि हमारी विजय ने पृथ्वी के नेतृत्व का भार अमेरिकी जनता को सौंप दिया है।’ सन् 1953 में प्रेसिडेंट आइजनहावर ने भी यही बातें कही थीं, ‘पृथ्वी को नेतृत्व देने का दायित्व भार हमारे देश को प्रदान किया है।’ एक ही तरह की बातें सभी अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने कही, वहाँ की दो पार्टियों की ‘पेंडुलम’ जैसी राजनीतिक व्यवस्था के बीच जो भी चुन कर आया। सबसे आखिरी उदाहरण, वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने इराक पर हमला और उसे ध्वस्त करने के दौरान कहा, ‘ईश्वर के आदेश पर मैं यह काम कर रहा हूँ।’ 19वीं शताब्दी के अंतिम समय में मैक्सिको पर कब्जा, स्पेन के साथ युद्ध के पश्चात साम्राज्यवाद के फतह पर उल्लासित सीनेटर अल्बर्ट रेभरिज ने सन् 1897 में कहा था, ‘हमारे लिए हमारी नीतियाँ भाग्य ने स्वयं लिखी हैं, पृथ्वी पर व्यवसाय हमे संभालना ही होगा। …हिंसा और अधंकार से भरे स्थानों पर अमेरिकी कानून, अमेरिकी व्यवस्था, सभ्यता और झंडा स्वयं को सुशोभित करेगा, तब ईश्वर के आशीर्वाद से वे स्थान सुंदर और उज्जवल हो उठेंगे।’ विगत सौ सालों से इसी अमेरिकी मानसिकता और लक्ष्य को हासिल करने के लिए अमेरिका ने बर्बर नाजियों के इतिहास को भी पीछे छोड़ दिया है। आज पारमाणविक हथियारों के ढेर पर बैठा अमेरिका पूरे विश्व को धमकी दे रहा है।

सन् 1945 में फासीवादी जर्मनी युद्ध से वापस लौट भागने में व्यस्त था। अप्रैल महीने में सोवियत रूस की सेना ने बर्लिन में जर्मनी की फासीवादी सेना के विरुद्ध अभियान शुरू किया। बर्लिन की हार हुई। उसी साल 17 जुलाई को पोर्टसडाम में मित्र देशों की शीर्ष बैठक आयेाजित हुई। इससे एक दिन पहले अमेरिका ने पहले परमाणु बम का परीक्षण किया था। बैठक चलने के दौरान 24 जुलाई को प्रेसिडेंट ट्रूमैन ने सोवियत नेता स्टालिन को इस प्रचण्ड ध्वंसात्मक क्षमतावान नये हथियार की जानकारी दी। मार्शल जुकवेर के अनुसार, ‘इस सूचना के दौरान स्टालिन एकदम शांत और निर्लिप्त भाव से सुन रहे थे तथा उन्होंने उत्सुकता में कोई प्रश्न तक नहीं किया था। इसी दिन शाम को स्टालिन ने बिना कोई क्षण गंवाए सोवियत रूस में पारमाणविक अनुसंधानों की गतिविधियों को और तेज करने का आदेश जारी किया।

इसी बैठक में सैन्य नीतियों के प्रमुखों ने सुझाव दिया कि जापान के विरुद्ध सोवियत रूस द्वारा युद्ध की घोषणा करने पर द्वितीय विश्वयुद्ध शीघ्र समाप्त होगा। सोवियत रूस ने इस बात पर अपनी सम्मति दी। 9 अगस्त को जापान के खिलाफ युद्ध में शामिल होने की घोषणा सोवियत रूस ने की। इस युद्ध में सुदूर पूर्व स्थित राष्ट्र सोवियत रूस के अवदान की महत्ता को कम करने में अमेरिका जुट गया। द्वितीय विश्वयुद्ध का पटाक्षेप करने के लिए अंतिम अस्त्र के रूप में फासीवादी जापान के ऊपर सोवियत रूस द्वारा हस्तक्षेप किये जाने के पहले जापान की जमीन पर परमाणु बमों का विस्फोट कर युद्ध का अंत अमेरिका के ही हाथों संभव होगा, इस निर्णय को अमेरिका ने स्थापित करने की चेष्टा की। इसके अलावा अमेरिकियों की धारणा थी कि इसके माध्यम से सारी पृथ्वी को भविष्य में उनके ही नियंत्रण में रहने की बात जता दे साथ ही सोवियत रूस भी दब कर रहेगा।
हिटलर द्वारा पराजय स्वीकारने के बाद भी जापान पूरे जोरशोर से लड़ाई में जुटा था लेकिन अपने विरुद्ध युद्ध में सोवियत संघ के उतरने की घोषणा करने के साथ ही जापान के प्रधानमंत्री ने कहा था कि हमारे लिए हताशा की परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं तथा लड़ाई जारी रख पाना कठिन है। इन्हीं परिस्थितियों के बीच अकारण हिरोशिमा शहर के 3 लाख 18 हजार निवासी अमेरिकी साम्राज्यवादियों के द्वारा 6 अगस्त, 1945 को 8.30 बजे गिराये गये परमाणु बम (यूरेनियम बम) के कारण जल कर राख हो गये। तीन दिनों बाद ही जापान के एक और शहर नागासाकी पर 9 अगस्त को अमेरिका ने एक और परमाणु बम (प्लूटोनियम बम) गिराया, जिसका कि इसके पहले कोई परीक्षण तक नहीं किया गया था। सारी पृथ्वी के देशों द्वारा धिक्कारे जाने के बावजूद निर्लज्ज अमेरिका अपने साम्राज्यवादी मंसूबे के विस्तार में जुटा रहा। पारमाणविक हथियारों सहित सभी जनसंहारक हथियारों को प्रतिबंधित किये जाने का अंतर्राष्ट्रीय प्रस्ताव सोवियत रूस ने 19 जून सन् 1946 को संयुक्त राष्ट्रसंघ के पारमाणविक ऊर्जा आयोग के सामने रखा था। इस प्रस्ताव में; प्रस्ताव पारित किये जाने के तीन महीनों के भीतर मौजूद तथा निर्माण की प्रक्रिया के अधीन तथा असमाप्त सभी पारमाणविक हथियारों को नष्ट किये जाने की बात की गयी थी। अमेरिका तब राजी नहीं हुआ बल्कि उल्टे उसने प्रस्ताव दिया कि पारमाणविक हथियारों को अमेरिकी नियंत्रण में रखकर अन्य हथियारों पर नियंत्रण करने के लिए पारमाणविक लगी का गठन किया जाय, जिसे अमेरिकी अनुयाइयों को लेकर गठित किया जाय।

इन चर्चाओं के दौरान ही जुलाई 1946 में अमेरिका ने सोवियत रूस को चेतावनी देने के रूप में एक बार फिर परमाणु बम का परीक्षण किया। प्रेसिडेंट ट्रूमैन की स्वीकृति से अमेरिका ‘प्लान ड्रापसेट’ नामक एक बड़ी परियोजना पर कार्य करते हुए सोवियत संघ के विरुद्ध सामरिक तैयारियों में जुटा था। इस परियोजना के तहत 3000 परमाणु बमों के साथ 1 जनवरी 1947 को अमेरिका और उनके यूरोप के ‘नाटो’ सदस्य देशों के साथ मिलकर हमला करने की योजना बनायी गयी थी। उनका आकलन था कि इस बीच सोवियत रूस परमाणु बम का आविष्कार नहीं कर पायेगा।

इस विध्वंसक अभियान को वैज्ञानिक फार्मिर के ‘चेन रियेक्शन’ आविष्कार के चार साल बाद 6 दिसम्बर 1947 को सोवियत रूस के विदेशमंत्री मोल्टोव के उस बयान से गहरा धक्का लगा था, जब उन्होंने विश्व के सभी शांतिप्रिय लोगों के मन में एक नयी आशा जगाते हुए कहा था – ‘परमाणु बमों का रहस्य अब रहस्य नहीं रहा।’ हिरोशिमा- नागासाकी के ऊपर विध्वंसक आक्रमण के चार वर्षों बाद 25 सितम्बर, 1949 को सोवियत न्यूज एजेंसी ‘तास’ ने घोषणा की थी, ‘सोवियत संघ के हाथों में परमाणु बम हैं। एक साल बाद 20 सितम्बर, 1950 को संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम परिषद की बैठक में सोवियत रूस ने बिना किसी शत्र्त के सभी पारमाणविक हथियारों पर प्रतिबंध लगाये जाने के प्रस्ताव का विरोध किया। इसके बाद अमेरिका ने अपने हथियारों के भण्डार को बढ़ाना शुरू कर दिया। इस क्षेत्र में सोवियत रूस को परास्त करने के लिए अमेरिका ने जून 1952 में पहली बार हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया जो कि हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराये जाने वाले परमाणु बम से हजारों गुना अधिक शक्तिशाली था। सोवियत रूस को भी बाध्य हो इस राह पर चलना पड़ा। किन्तु सोवियत रूस ने पुनः 21 सितंबर, 1953 को संयुक्त राष्ट्रसंघ में सभी जनसंहारक हथियारों पर निःशर्त प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव एक बार फिर रखा। अमेरिका ने प्रस्ताव का विरोध किया। आज सोवियत संघ का विखण्डन हो गया है। बावजूद इसके अमेरिका अब भी अपनी उसी पुरानी होड़ – भारी मात्रा में हथियारों का जखीरा बढ़ाने, पारमाणविक हथियारों की मारक क्षमता बढ़ाने, पृथ्वी को अपने अधिकार में काबिज करने में जुटा है।

सन् 1945 के पहले हवा और पानी में जिसका कोई नामोनिशान नहीं मौजूद था, ऐसे विषाक्त पदार्थ भी अब मिलने लगे। जैसे कि स्ट्रेनटियम 90, जिससे कि जीव जगत के स्वास्थ्य में अब असाध्य रोग बढ़ने लगे थे। इस संबंध में विख्यात अमेरिकी भौतिकविद और रसायन शास्त्री व नोबेल पुरस्कार विजेता लीनस पाउलिंग ने गत पचास के दशक में विकीरण के भयंकर खतरे के बारे में आगाह करते हुए कहा था कि यदि इस विष का एक चम्मच भी पृथ्वी के सभी मनुष्यों में बांट दिया जाय तो सभी मनुष्य कुछ ही वर्षों में मारे जायेंगे। अमेरिका और रूस ने पानी, जमीन के भीतर और आकाश में असंख्य परमाणु परीक्षण किये है। इनमें अमेरिकी परीक्षणों की संख्या ही काफी अधिक है।…विकीरण का प्रभाव बढ़ा है।
पूरी पृथ्वी को पारमाणविक हथियारों के जखीरे पर खड़ा कर अब अमेरिका अपनी चढ़ाई ईरान, भारत और लोकतांत्रिक कोरिया के ऊपर कर रहा है। दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन को काबू में करने के लिए हिरोशिमा और नागासाकी के देश जापान में भी अमेरिकी सेना और पारमाणविक हथियारों की तलाशी और उन्हें नष्ट करने के नाम पर उन लोगों ने इराक को लगभग नेस्तानाबूद कर दिया। याद रहे कि पृथ्वी पर युद्ध को रोकने की सभी समस्याओं का शांतिपूर्वक समाधान निकालने तथा पारमाणविक हथियारों का प्रयोग बंद करने के लिए सन् 1955 मैक्सवरन, आइंस्टीन, जोलियो क्यूरी, पाउलिंग और बर्टेण्ड रसेल सहित 11 विख्यात लोगों ने निवेदन किया था अमेरिका ने तब भी नहीं सुनी। 70 वर्षों बाद भी नहीं।

साम्राज्यवादी हिंसा व उनकी प्रसार नीति की भावना में बदलाव आने की बात सोचना भी बेकार है। इस संदर्भ में लेनिन का वक्तव्य स्मरणीय है – ‘‘माक्र्सवादी कभी नहीं भूले हैं कि ‘हिंसा’ के साथ ही जुड़ी है पूँजीवादी की हार और समाजवादी देशों का जन्म। विश्व इतिहास के एक अध्याय में दर्ज रहेंगे – कई प्रकार के युद्ध, साम्राज्यवादी युद्ध, सत्ता परिवर्तन के लिए देशों में चलने वाले गृहयुद्ध, दोनों युद्धों का मिलाजुला रूप और इन सबके अतिरिक्त साम्राज्यवादी ताकतों से नाना प्रकार से पीड़ित देशों की राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई में निश्चित तौर पर हिंसा का समावेश रहेगा। यह युग विषम संकट भरे प्रलय का है। सामरिक अस्त्रों के बल पर जबरन सब कुछ दखल करने की चेष्टा को लोकतांत्रिक स्वरूप देने वालों का यह युग है। प्रचण्ड राष्ट्रीय पूँजीवाद, सैन्य संस्थाओं तथा गठबंधनों के युग को हम स्पष्ट रूप से देख पा रहे हैं और यह केवल सूचना भर ही है।’’ अमेरिकी साम्राज्यवादी और उनके सहयोगियों ने आधुनिकतम जनसंहारक हथियारों के माध्यम से पुनः बर्बर आक्रमण शुरू कर दिये हैं। वे पूरी पृथ्वी को चरम हिंसा में झोंकने की धमकी दे रहे हैं, साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष ही एकमात्र उनका प्रतिरोध कर सकता है। विश्वव्यापी शांतिप्रिय और लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति जागरूक जनता के इस संघर्ष की अविश्वसनीय सफलता ही विश्व इतिहास के इस युद्ध के युग का समापन कर सकती है और यह संभव भी है। पूँजीवाद और हिंसा कदापि अंतिम समाधान नहीं है।

6 अगस्त, 1945 को जापान के हिरोशिमा शहर तथा 9 अगस्त को नागासाकी शहर पर परमाणु बम गिरा कर अमेरिका ने दोनों शहरों को नेस्तानाबूद कर दिया था। भारी संख्या में निरीह मनुष्यों, बुनियादी संरचनाओं तथा जान-माल की अपार क्षति हुई थी। पूरी पृथ्वी सिहर उठी थी। किन्तु अमेरिकी प्रशासन की खुशियों का कोई ठिकाना ही नहीं था। अमेरिकियों ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराकर उसे नष्ट किया था लेकिन इसके बाद भी बम, गोली तथा प्रक्षेपास्त्रों जैसे घातक हथियारों से भारी संख्या में वियतनाम के नागरिकों की हत्या की थी। हिरोशिमा-नागासाकी से कई हजार टन गुना अधिक मात्रा में बमों का प्रयोग अमेरिका ने वियतनाम पर किया था। अमेरिकी साम्राज्यवादियों के परोक्ष हमले के पहले सन् 1991-2000 के बीच इराक पर भी हिरोशिमा और नागासाकी की तुलना में कई हजार टन गुना की मात्रा में ब्रिटिश और अमेरिकी बम गिराये गये। इन हमलों के कारण 5 लाख इराकी शिशुओं और 10 लाख निरीह लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी।

गोस्लाविया, इराक, अफगानिस्तान तथा वर्तमान में फिलिस्तीन और लेबनान पर ब्रिटेन-अमेरिका का सहयोगी इजरायल एकतरफा हमला कर रहा है। उनका लक्ष्य एक ही है – ‘पृथ्वी पर एकाधिकार।’ जो इन साम्राज्यवादियों की आड़ में घातक हथियारों द्वारा निरीह लोगों की हत्याएँ कर रहे है; वे भी आज इस बात से इनकार नहीं कर सकते हैं कि जिन हथियारों को मनुष्यों ने बनाया, आज उन्हीं हथियारों के वे गुलाम हो चुके हैं। जिस प्रकार मनुष्यों से भूल हो जाती है, उसी प्रकार उन हथियारों के प्रयोगों में भी भूल स्वाभाविक है। पारमाणविक हथियारों के क्षेत्र में अगर ऐसी कोई भूल हुई तो पूरी पृथ्वी ही नष्ट हो सकती है। जिसे कभी सोचा नहीं गया, वैसी दुर्घटनाएँ भी घटती हैं, मसलन अमेरिकी अंतरिक्ष यान चैंलेजर अथवा चेरनोबिल पारमाणविक विद्युत केन्द्र जैसी घटनाएँ।

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