जहाँ परवाह है,वहाँ परिवार है
राजकुमार अरोड़ा गाइड
परिवार के सभी सदस्यों में जब तक परस्पर परवाह है तब तक ही तो परिवार का अस्तित्व है।परवाह का प्रवाह ही ह,सहयोग व आपसी आकर्षण का गवाह है। रिश्तों को खींचना नहीं है,उनमें खिंचाव लाना है।यही खिंचाव ही मकान को घर बनाता है, जिसमे रहने वाले सदस्य एक दूसरे के दिल में घर करते हैं अन्यथा वो तो मकान ही है जहाँ एक दूसरे से विमुख कुछ प्राणी बस किसी तरह रहते हैं। मैंने देखा है, कुछ एक परिवारों में सब कुछ ठीक चल रहा होता है,कोई कमी नहीं,कोई अभाव नहीं,परन्तु बात बात पर बेवजह अतीत की कुछ गलतियों या बातों को याद कर या करा घरेलू वातावरण को तनावग्रस्त व अशान्त कर दिया जाता है। अतीत की चादर बार बार ओढ़ने से वर्तमान की सुनहरी चादर भी मैली ही नज़र आएगी साथ ही भविष्य भी कौन सा ठीक रह जायेगा।
यह बात तो एकदम पूरी तरह सही है कि ब्रह्मांड में ज़ुबान ही ऐसी चीज़ है, जहाँ पर ज़हर और अमृत दोनों एक साथ रहते है।इसी बात को ले कर मेरी एक कविता की पंक्तियां यूँ हैं-“शब्द केवल शब्द नहीं होते,तरकस से निकले बाण होते हैं, ऐसे वैसे,बस यूँ ही कुछ न कहो,परोसने से पहले,ये चखने भी होते हैं।”परिवार में कभी भी इतनी कटुता रसोई व अन्य कार्यों के कारण नहीं होती जितने रूखे व कड़वे बोल की वजह से होती है।
गलतियाँ सुधारी जा सकती हैं,गलतफहमियां भी पर गलतधारणा कभी नहीं सुधारी नहीं जा सकती।यह गलतधारणा बार बार के कड़वे बोल के कारण बन जाती है,जब ऐसे में परिवार टूटन के कगार पर आता है तो दो में से एक पक्ष कभी भी शतप्रतिशत सही नहीं हो सकता,ऐसे में बहुत अधिक या बहुत कम कोई भी गलत हो सकता है,बुद्धिमत्ता व सूझबूझ से ही बात बनती हैं,दोनों तरफ अहं व जिद्द के कारण बाद में तो पश्चाताप,कसमसाहट के अलावा कुछ भी नहीं बचता।
सच!जिन्दगी गुज़र गई सब को खुश करने में जो खुश हुए वो अपने नहीं थे,जो अपने थे कभी खुश नहीं हुए।दर्द हमेशा अपने ही देते हैं वरना गैरों को क्या पता, तकलीफ किस बात से होती है।वास्तव में परिवार में कायदा नहीं व्यवस्था,सूचना नहीं समझ,कानून नहीं अनुशासन, भय नहीं भरोसा,शोषण नहीं पोषण,आग्रह नहीं आदर,सम्पर्क नहीं सम्बंध, अर्पण नहीं समर्पण होना चाहिए पर आज रिश्तों की नीवं की ज़मीन ही दरक गई है, घर में ही रह कर बनवास भोगने जैसा वातावरण हो गया है अब तो स्वार्थपरता ही सभी रिश्तों का आधार बन गई है, रिश्तों की पहचान तो मोबाइल में कैद हो गई है,पासवर्ड की पहचान में आदमी भटक रहा है।
सम्बन्धों की मधुरता के लिये सम्बोधन की मधुरता अनिवार्य है।किसी अन्य को समझने से बेहतर है,स्वयँ को समझे,किसी और को खुश करने से बेहतर है,स्वयँ को खुश करें।यदि ऐसा हो तो हर घर परिवार में खुशनुमा माहौल ही बन जाये।वक्त से पहले बोले गये शब्द और मौसम से पहले तोड़े गये फल दोनों ही व्यर्थ।नींबू के रस की एक बूँद हज़ारों लीटर दूध को बर्बाद कर देती है,उसी प्रकार एक कड़वा अनर्गल बोल,अच्छे से अच्छे रिश्तों, सम्बन्धों को बर्बाद कर देता है।
किसी एक पर भी मुसीबत आये तो सभी हौंसले,हिम्मत के साथ एकजुट हों, इसी में परिवार का माधुर्य हैं,जहाँ जिन्दगी की मुश्किलें आसान हो जातीं हैं।माँ की ममता में बच्चे का संसार,जीवन का रास्ता दिखाये पिता की फटकार,भाई बहन का रिश्ता प्यार का आधार, दादा दादी की बातों में जीवन का सार।रिश्तों की नाज़ुक डोरी को चाहिये बस थोड़ा सा प्यार,अहं छोड़ झुक जायें,तो मिले खुशियों का अम्बार,बस जाये घर सँसार।
घर एक मन्दिर की तरह है।मन्दिर में जाते ही प्रभु से समीपता का एहसास होता है, ऐसे ही घर में जहाँ परस्पर प्यार,लगाव,आकर्षण है,जाते ही अपनेपन का एहसास हिलोरें लेने लगता है, घर की देहरी में आते ही सारी थकान दूर हो जाती है तो यह मन्दिर ही जैसा लगता है।मिट्टी का मटका और परिवार की कीमत सिर्फ बनाने वाले को पता होती है,तोड़ने वाले को नहीं।अपनेपन की बगिया में ही तो खुशहाली का द्वार है।यह सच है,जहाँ परवाह है, वहाँ परिवार है, जहाँ परिवार है, वहीं ही तो हरिद्वार है।
कवि,लेखक व स्वतंत्र पत्रकार
सेक्टर 2,बहादुरगढ़(हरि०)