गीत

विचार—विमर्श

नई जिंदगी देती है धूप जाड़े वाली।
धूप जाड़े वाली।।

सुबह-सुबह रहता है मन
मरा-मरा,
धरती चादर ओढ़े है
हरा-हरा।

है वही कल थी जहां बात किवाड़े वाली।
बात किवाड़े वाली।।

जी में जी होता है पा
कर घाम,
शबनम से पाया घन को
हुआ जुखाम।

नहीं पार कर पाए हैं सीमा बाड़े वाली।
सीमा बाड़े वाली।।

देखो आेस चमचमाती है
हरी-हरी घासो पर,
पड़ा हुआ है श्वेत कफन
ठंडी का लाशों पर।

देखों आगे गौर करो छोड़ो पिछवाड़े वाली।
पिछवाड़े वाली।।

साफ दिख रहीं चेहरे पर
मौसम के थकान,
आलिंगन में कोहरे के छत
ढ़का आैर मकान।

मरी नहीं जिंदा है चोट अखाड़े वाली।
अखाड़े वाली।।

हर कोई कांपता है
थर-थर,
जिंदा है सो है लेकिन
मर-मर।

सन्नाटे बेधती है आवाज नगाड़े वाली।
नगाड़े वाली।।

सुधांशु पांडे “मुक्त प्राण निराला”
प्रयागराज,उत्तर प्रदेश,भारत.

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