किसानों और खेती पर सरकार की एक नयी जुमलेबाजी
आर एस यादव
दिल्ली की सीमाओं पर प्रदर्शन करते हुुए किसानों को सात महीने से अधिक हो चुके हंै और सरकार उनकी मांगों पर विचार करने के लिए तैयार ही नहीं है। 22 जनवरी के बाद सरकार ने वार्ता के लिए कोई पहल नहीं की। कृषि मंत्री बार-बार कहते रहते हैं कि सरकार तीन कृषि कानूनों को वापस नहीं लेगी और किसानों से बात करने को तैयार है जबकि किसानों की मुख्य मांग है कि तीन कृषि कानूनों को वापस लिया जाए। ऐसे में कृषि मंत्री के इस तरह के बयानों का इसके सिवा कुछ अर्थ नहीं कि वार्ता करने का सरकार का इरादा ही नहीं है और उसने किसानों से निपटने का कुछ और ही मंसूबा बना रखा है। यह मंसूबा दमन एवं उत्पीड़न के जरिये या किसी तरह का हिंसा का माहौल बनाकर आंदोलन को खत्म करने के अलावा और क्या हो सकता है? किसान अत्यंत शांतिपूर्वक अपना आंदोलन चलाते आ रहे हैं।
केंद्रीय मंत्रिपरिषद में फेरबदल के बाद 8 जुलाई को मंत्रिमंडल की पहली बैठक के बाद कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर ने एक बार फिर किसान संगठनों से प्रदर्शन खत्म करने की अपील की और कहा कि कृषि कानूनों को रद्द नहीं किया जाएगा।
साथ ही, उन्होंने कहा, ‘‘इस साल बजट के दौरान हमने कहा था कि एमएसपी की व्यवस्था खत्म नहीं होगी बल्कि उसे और मजबूत बनाया जाएगा। उसे ध्यान में रखते हुए मंत्रिमंडल ने आज एपीएमसी (यानी मंडियों) को कृृषि बुनियादी ढांचा कोष के तहत एक लाख करोड़ रुपये की वित्तपोषण सुविधा के उपयोग की मंजूरी दी है।’’ यह एक नयी जुमलेबाजी है।
उन्हांेने कहा कि मंडिया समाप्त नहीं होंगी। तीन कृषि कानूनों के लागू होने के बाद मंडियों को इस कृषि बुनियादी ढांचा कोष से वित्तीय सुविधा मिलेगी। एक ही कृृषि मंडी के भीतर कोल्ड स्टोरेज, साइलो ;खत्तीद्ध, छंटाई, मानकीकरण, जांच-परख इकाईयां आदि विभिन्न बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए ब्याज सहायता प्रदान की जाएगी। केवल एपीएमसी को ही नहीं बल्कि इस कोष से सहकारी समितियों, किसी व्यक्ति, संस्था या कृृषक समूह को दो करोड़ रुपये का ऋण मिल सकेगा और ऋण की गारंटी सरकार करेगी। ब्याज पर तीन प्रतिशत की छूट दी जाएगी। कृृषि मंत्री ने कहा कि कोई व्यक्ति अलग-अलग स्थानों पर 25 परियोजनाओं की स्थापना कर सकता है, इसके लिए उसे ब्याज पर दो करोड़ रुपये की छूट दी जाएगी।
यह समझना मुश्किल नहीं है कि प्रस्तावित वित्तीय सहायता का मकसद उन निजी कंपनियों को वित्तीय सहायता पहुंचाना है जो कृृषि कानूनों के लागू होने के बाद कृषि उत्पादों की खरीद के क्षेत्र में आएंगी और खरीद के लिए निजी मंडियों आदि की व्यवस्था करेंगी।
कृषि मंत्री का यह दावा सरासर मिथ्या है कि मंडिया खत्म नहीं होंगी। कृषि मंत्री के पास इसका क्या जवाब है कि भाजपा शासित मध्यप्रदेश में 259 मंडियों में से 47 में कारोबार गिरकर शून्य पर आ गया ;जिसका व्यावहारिक अर्थ है कि मंडी खत्म हो गई हैं। 298 उपमंडिया (जो सीजनल तौर पर चलती हैं), उनमें 6 महीनों में कारोबार शून्य पर आ गया । जनवरी 2020 में राज्य एग्रीकल्चरल मार्केटिंग बोर्ड का राजस्व 88 करोड़ रुपये था, वह जनवरी 2021 में घटकर 29.26 करोड़ रह गया ;जो 66 प्रतिशत की गिरावट हैद्ध। उनके अपने राज्य में मंडिया खत्म हो रही हैं और वह देश के सामने झूठा दावा कर रहे हैं कि मंडिया मजबूत हो जाएंगी।
हालत यह है कि सरकारी मंडियों को खत्म करने की सरकार की सोची-समझी नीति के अनुसार मध्यप्रदेश में मंडिया चैपट हो रही हैं और मध्यप्रदेश सरकार मंडियों के खाली परिसरों में निजी लोगों के शाॅपिंग कम्प्लैक्स, पेट्रोल पम्प आदि बनाने की स्कीम पर काम कर रही है।
कृषि मंत्री का यह दावा भी सरासर मिथ्या है कि एमएसपी जारी है और जारी रहेगी।
अन्य किसी ने नहीं स्वयं अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी ने ;जो सरकार के पक्षधर अर्थशास्त्री हैं और उस तीन सदस्यीय समिति के सदस्य हैं जो किसानों की समस्याओं पर विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बनायी गयी थीद्ध, जनवरी 2021में लिखा है कि उनके अपने स्वयं के अध्ययन ;जो उन्होंने रितिका जुनेजा के सहयोग से कियाद्ध के अनुसार, 2018-19 में गेहूं, धान, दाल, तिलहन और कपास की जो कुल खरीद सरकारी एजेंसियों ने की, वह कुल उपज का मात्र 6 प्रतिशत थी और उसका बड़ा हिस्सा पजंाब हरियाणा पट्टी में खरीदा गया।
जब मात्र 6 प्रतिशत कृषि उपज ही एमएसपी पर खरीदी जा रही है तो यह कहना फिजूल है कि एमएसपी जारी है। एमएसपी जारी रहने का दावा तब ही किया जा सकता है जब सौ प्रतिशत या काफी बड़े प्रतिशत में कृषि उपज को एमएसपी पर खरीदा जा रहा हो।
जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति का जिक्र आ ही गया है तो बताना उचित होगा कि इस समिति का गठन 12 जनवरी 2021 को किया गया था। समिति ने 19 मार्च 2021 को एक सीलबंद लिफाफे में अपनी रिपोर्ट को अदालत को सौंप दिया था। पर किसे फिक्र है उसे खोले और देश को बताए कि समिति ने क्या सिफारिश की है? इसे समूचे तंत्र द्वारा किसानों की उपेक्षा के अलावा और क्या समझा जा सकता है।