उत्तर प्रदेश में दलित अधिकार कन्वेन्शन सम्पन्न
फूल चन्द यादव
लखनऊः उप्र खेत मजदूर यूनियन ;22, कैसरबाग, लखनऊद्ध एवं उप्र खेत मजदूर यूनियन ;10,विधान सभा मार्ग, लखनऊद्ध दोनो संगठनों द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित दलित अत्याचारों के खिलाफ, दलित अधिकार के लिए राज्य स्तरीय कन्वेंशन 7 मार्च, 2021 को 22 कैसरबाग, लखनऊ में खरपत्तू राजभर एवं सतीश के दो सदस्यीय अध्यक्षमण्डल की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ।
अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के राष्ट्रीय सचिव विक्रम सिंह ने कन्वेंशन का उद्घाटन करते हुए कहा कि भारतीय समाज का द्वन्दात्मक इतिहास यह प्रमाणित करता है कि प्राचीन मध्यकाल व वर्तमान में भी दलित जातियों के साथ छुआछूत, पेशे का निर्धारण, अखाद्य पदार्थ खाने के निर्देश, पूजा, विवाह, सम्पत्ति का स्वामित्व, शिक्षा पर रोक इत्यादि धार्मिक ग्रन्थों, स्मृतियों के जरिये दैवीय आदेश घोषित करके उन्हें गुलाम बनाया गया है। इस समुदाय को पूरी तरह अयोग्य, असभ्य राक्षस बना दिया गया। जातिवाद के चलते ही भारतीय समाज में रहते हुए भी दलित अभारतीय बने हुए हैं। आज दलितों को न सिर्फ अपनी मुक्ति के लिए, अपितु मुल्क में अपने हिस्से के लिए, लोकतंत्र की रक्षा के लिए अनवरत संघर्ष करने की आवश्यकता है।
उप्र खेत मजदूर यूनियन 22, कैसरबाग, लखनऊ के महासचिव फूलचन्द यादव ने कन्वेंशन में प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि भारत की आजादी के 74 वर्ष बाद भी दलित आर्थिक और सामाजिक स्थिति के मामले में समाज के सबसे निचले पायदान पर है। 2011 की जनगणना के अनुसार दलित कुल आबादी के 16.6 प्रतिशत और ग्रामीण आबादी के 17.91 प्रतिशत हैं। दलित परिवारों का एक बड़ा हिस्सा ;58.9 प्रतिशतद्ध कृषि में संलिप्त ग्रामीण मजदूरों का है। उनका जीवन दुखों और अनादर से भरा हुआ है। उन्हें संसाधनों में उनकी वैध हिस्सेदारी से वंचित कर दिया जाता है। अपनी इच्छानुसार सामन्ती ताकतों द्वारा उनके श्रम का शोषण किया जाता है। एक बड़ी लड़ाई के बाद इस भेदभाव को हमारे संविधान में स्वीकार किया गया और समाज के समग्र विकास के लिए कुछ सकारात्मक कदमों का सुझाव दिया गया था। विचार यह था कि समाज के सभी तबकों के लिए शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक शक्ति तक समान पहुंच सुनिश्चित की जाए। विशेष रूप से उन लोगांे के लिए जो सामाजिक और धार्मिक कानूनों के द्वारा जानबूझकर अपने हिस्से से वंचित किए गए थे।
ग्रामीण भारत में व्यक्ति की ताकत और उसका दर्जा भूमि पर स्वामित्व और जोत के आकार से तय होता है। लगभग 60 प्रतिशत दलित परिवारों के पास खेती के लिए जमीन नहीं है, जबकि उनकी तुलना में बाकी आबादी के पास 40.1 प्रतिशत भूमि का स्वामित्व है। भूमि स्वामित्व वाले ग्रामीण दलित परिवारों में, केवल 0.6 प्रतिशत के पास 4 हेक्टेयर से अधिक भूमि है, केवल 2.2 प्रतिशत ग्रामीण दलित परिवारों के पास 2.01 से 4 हेक्टेयर तक की भूमि है, जबकि गैर दलित परिवारों के पास 8.5 प्रतिशत हेक्टेयर जमीन है। इसी प्रकार 4.4 प्रतिशत दलित परिवारों के पास 1.01 से 2 हेक्टेयर तक भूमि है जबकि गैर दलित गैर पिछड़े परिवारों के पास 10.8 हेक्टेयर है। उत्तर प्रदेश में 17 प्रतिशत दलित परिवारों के पास जोतने के लिए जमीन एवं 11 प्रतिशत के पास रहने के लिए आज भी मकान नहीं है। दलित एवं आदिवासी आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक दोनों पहलुओं से समाज के सबसे निचले पायदान पर है।
वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों की संख्या 3 करोड़ 51 लाख 48 हजार 377 है। जो देश की कुल आबादी का 20.70 प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश के अन्दर कुल 75 जिलें है। पूर्वांचल, बुन्देलखण्ड का इलाका आर्थिक तौर पर सर्वाधिक पिछड़ा इलाका है। जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तर तराई इलाका पूर्वांचल और बुन्देलखण्ड की तुलना में बहुत ज्यादा सम्पन्न है। इस क्षेत्र में सर्वाधिक अत्याचार की घटनाएं पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बुन्देलखण्ड में होती रही है। यहां भंयकर गरीबी एवं आर्थिक पिछड़ापन कायम है। यह क्षेत्र सामन्ती अत्याचारों के लिए आज भी जाना जाता है। रूहेलखण्ड व उत्तर के तराई इलाके में जहां आज भी ज्यादातर सामन्ती व जमींदारी के अवशेष कायम है। उन इलाकों में सवर्ण सामन्ती ताकतों द्वारा दलितों पर सर्वाधिक अत्याचार होता है।
2019 में 11 आदिवासियों की उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के उभ्भा गांव में भू स्वामियों द्वारा निमर्म हत्या कर दी गयी थी। हाल ही में उत्तर प्रदेश के हाथरस जिलें में एक दलित महिला का बलात्कार और उसकी हत्या भारत में दलित महिलाओं के खिलाफ होने वाली जाति हिंसा का ही परिचायक है।
उत्तर प्रदेश में कुल 11829 मामले दलित अत्याचारों के दर्ज किए गए। यह देश के कुल मामलों का 25.8 प्रतिशत है। हाल में बलरामपुर, भदोही, सहारनपुर, बांदा, हाथरस, आजमगढ़, सीतापुर, पीलीभीत, लखीमपुर-खीरी, कासगंज, बदायंू, बुलन्दशहर, मथुरा, रायबरेली, उन्नाव, कानपुर देहात आदि जिलों में सर्वाधिक घटनाएं दलित महिलाओं के साथ घटी हैं। जिला बरेली ने तो दलित महिलाओं से रेप के मामले में सारी हदों को पार कर दिया।
दलितों के खिलाफ गम्भीर अपराध जैसे-हत्या, शीलभंग, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, अपहरण और एससी/एसटी अधिनियम के तहत अपराध आदि बाकी देश की तुलना में उत्तर प्रदेश में कही अधिक हैं। इससे भी बदतर स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश के जेलों में 16 प्रतिशत दलित, आदिवासी और 11 प्रतिशत मुस्लिम हैं।
समाज में हाशिये पर रहने वाले तबकों पर अत्याचारों, सामूहिक बलात्कारों और भीड़ द्वारा हत्याओं में बढ़ोत्तरी, संकटग्रस्त नवउदारवादी व्यवस्था के तहत दलितों और उत्पीड़ित तबकों को हाशिएं पर धकेलने की सरकार की योजना से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। केन्द्र और राज्य दोनों ही सरकारों द्वारा दलितों के संवैधानिक अधिकारों का हनन किया जा रहा है। अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम-1989 को पहले की सरकारों द्वारा पूरी तरह से लागू नहीं किया गया था, लेकिन भाजपा सरकार न केवल इसे कमजोर कर रही है बल्कि अपराधियों को संरक्षण भी दे रही है जो दलितों के खिलाफ हमलों की बढ़ती संख्या का प्रमुख कारण है। देश एक गम्भीर संकट के दौर से गुजर रहा है, जहां भाजपा राज में दलितों और समाज के अन्य उत्पीड़ित तबकों के खिलाफ, विशेषकर दलित महिलाओं के खिलाफ क्रूरता की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। उत्तर प्रदेश में योगी के नेतृत्व वाली सरकार में दलितों के खिलाफ हो रही अपराध की घटनाओं में बेतहाशा वृ(ि हो रही है जो उत्तर प्रदेश को दलितों के साथ ही अन्याय के खिलाफ विरोध की आवाज उठाने वालो को आतंकित करने वाले प्रभुत्वशाली सवर्ण मानसिकता वाले भूस्वामियों की प्रयोगशाला बना रहा है।
अंत में यह कन्वेन्शन प्रदेश के दलितों से अपील करता है कि आज के भूमण्डलीकरण, निजीकरण, बाजारीकरण जो साम्राज्यवादी, पूंजीवादी शोषकों, लुटेरों के लिए प्रतिपादित नीति है, इसने मेहनतकश इंसानों की जिन्दगी को और भी नरकीय बना दिया है, जो कमरतोड़ मंहगाई, लूट, हत्या, बलात्कार, यौन उत्पीड़न, भूखमरी, भ्रष्टाचार तथा जीवन के आवश्यक साधनों के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में सभी वाम, जनवादी ताकतों, धर्मनिरपेक्ष ताकतों की ऐतिहासिक जरूरत है कि इन अत्याचारों के खिलाफ माक्र्सवादी व अम्बेडकरवादी जनता पूरे प्रदेश में लामबन्द होकर निर्णायक जंग का ऐलान करने का काम करें। मेहनतकश जनता की मुक्ति में ही दलितों की मुक्ति है।
दलित समुदाय की मुक्ति समस्त भारतीय समाज की विषमतामूलक, जाति व्यवस्था के उन्मूलन में ही निहित है। दलित जातियां अलग से अपनी मुक्ति सुनिश्चित नहीं कर सकती, जब तक कि शेष शोषित पीड़ित मेहनतकश आवाम की मुक्ति सुनिश्चित न हो। फलतः भारतीय समाज के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के लिए दलित जातियों को अगुवा दस्ता बनकर नया इतिहास रचने के दायित्व का निर्वाह करना है। पददलित जातियां ही भारतीय समाज में ग्रामीण सर्वहारा की भूमिका में खड़ी है।
इस अवसर पर हम प्रदेश के अन्दर जातिवाद एवं उत्पीड़न के शिकार उन करोड़ों दलितों आदिवासियों को विश्वास दिलाना चाहते है कि जब भी दलित आदिवासी तबकों पर सवर्ण सामन्ती व पुलिसिया अत्याचार होंगे, उनके अधिकारों को रौदने की कोशिश होगी, उत्तर प्रदेश खेत मजदूर यूनियन का एक-एक कार्यकर्ता आपके मुक्ति आन्दोलन में कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़ा रहेगा।
अंत में यह सम्मेलन संघर्षों को तीव्र करने का संकल्प लेता है और मांग करता है कि दलितों एवं दलित महिलाओं पर किए जा रहे अत्याचारों पर अविलम्ब रोक लगाया जाए एवं अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम को मजबूती से लागू किया जाए, दलित अत्याचारों के खिलाफ फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना कर दोषियों को कम समय में मुकदमा चलाकर सजा दिलाई जाए, अनुसूचित जाति/जनजाति के बच्चों को प्राइमरी स्तर की शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था सुनिश्चित किया जाए, असामाजिक गोरक्षक बलों पर प्रतिबन्ध लगाया जाए, मैला उठाने की प्रथा पर रोक लगाने के साथ ही इसके लिए मजबूर लोगों को वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था की जाए, दलित भूमिहीन परिवारों को प्राथमिकता के आधार पर भूमि वितरण की व्यवस्था की जाए, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के सार्वजनिक उपक्रमों की निजीकरण की प्रक्रिया पर रोक लगाई जाए, दलितों के लिए त्रिस्तरीय आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए, निजी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था की जाए, जातिविहीन समाज की रचना के लिए अन्तर्जातीय विवाह की मान्यता प्रदान की जाए और प्रोत्साहन राशि की व्यवस्था के साथ ही अन्तर्धार्मिक विवाह की मान्यता भी प्रदान की जाए, अनुसूचित जाति/जनजाति सबप्लान योजना के लिए बजट में अलग से धन आवंटन की व्यवस्था की जाए और उसको उसी मद में ईमानदारी से लागू किया जाए, नई श्रमसंहिताओं, नए कृषि कानूनांे एवं बिजली बिल अधिनियम-2020 को तुरन्त रद्द किया जाए, मनरेगा के बजट को 2 लाख करोड़ रूपये किया जाए और खेत मजदूरों को वर्ष में 200 दिन का काम एवं 600 रूपये प्रतिदिन न्यूनतम मजदूरी दिया जाए, सीवर सफाईकर्मी की काम के दौरान 25 लाख रूपये मुआवजा दिया जाए, अनुसूचित जाति/जनजाति के कर्मचारियों एवं अधिकारियों की पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए, खेत मजदूरों के लिए सर्वसमावेशी केन्द्रीय कानून बनाया जाए, लव जिहाद के नाम पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ यूएपीए कानून ;दस वर्ष की सजाद्ध एवं असहमति की आवाज के खिलाफ लाये गये देशद्रोह के कानून को जनहित में तत्काल रद्द किया जाए, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को चुस्त एवं दुरूस्त किया जाए, खेत मजदूरों के आकस्मिक मौत पर मुआवजे का प्रावधान किया जाए।
फूलचन्द यादव द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव का उप्र खेत मजदूर यूनियन ;10 विधान सभा मार्ग, लखनऊद्ध के महासचिव बृजलाल भारती ने समर्थन किया।
भारतीय खेत मजदूर यूनियन के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष दरियाव सिंह कश्यप ने कन्वेंशन का समापन करते हुए कहा कि विश्व समाज में दलित इतिहास का कोई अलग से रिकार्ड उपलब्ध नहीं है। परन्तु यह सर्वमान्य है कि विश्व में विभिन्न रूपों में अलग-अलग समूहों में दलितों के साथ घोर अमाननीय अत्याचार की घटनायें होती रही है। इन अमानवीय पैशाचिक अत्याचारों के खिलाफ पूरी दुनिया में दलित समुदाय अपनी मुक्ति के लिए अनवरत संघर्षरत रहे हैं। संघर्षो के बल पर ही उन्हें सामाजिक अत्याचारों से काफी मुक्ति भी मिली है।
विश्व का हर छठां व्यक्ति भारतीय है। प्रत्येक चार या पांच भारतीय में एक हरिजन व गिरिजन है। छुआछूत, अशिक्षा, गरीबी, अमानवीय पेशा, भुखमरी तथाकथित भारतीय सभ्य समाज के चेहरे पर गहरा धब्बा है। अनुसूचित जातियों एवं जातियों में भी सभी अछूत नहीं है। हर छठां भारतीय दलित क्यो है? इस अत्याचार को समाप्त करना होगा। प्राचीन भारत में चार्वाक वेदों के विरू( ललकारता है। बु( ब्राह्मणों की सर्वोच्चता के खिलाफ प्रश्न खड़ा करते हैं। भक्ति आन्दोलन की नींव ही अछूतों के नायकों, मनीषियों के बल पर खड़ी है। कबीर, गुरूनानक, महात्मा रविदास, नामदेव इत्यादि मनीषी सामाजिक बुराईयों के विरू( बिगुल बजाते हैं, बाद में महात्मा ज्योतिबा फूले, ई. बी. रामास्वामी पेरियार, रानाडे, अम्बेडकर तक एक सामाजिक विद्रोह की लम्बी परम्परा है। रामानुज ने तो क्रान्तिकारी तकनीकी से भंगी को ब्राह्मण में रूपान्तरित किया है। अद्वैतवादी सन्त व दार्शनिक तो जैव मानवीय एकता पर सर्वाधिक जोर देते हुए मिलते है। अछूत, भारतीय ब्राह्मणवादी व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर हैं। अम्बेडकर, गांधी, समाजवादी व साम्यवादी विचाकर मानवाधिकारों के लिए अनवतर लड़ते रहे हैं, परन्तु अछूतों की समस्या आज तक राष्ट्र के लिए सिरदर्द बनी हुयी है।
कन्वेंशन को प्रमुख रूप से रामअवध, दुर्बलीराम, डाॅ. रघुनाथ, श्रीकृष्णधर, रामकृष्ण हेगड़े, शिवाजी राय एवं 6 और अन्य साथियों ने कन्वेश्ंान में अपने विचार व्यक्त किए।
सतीश चन्द्र ने राष्ट्रीय नेताओं, प्रदेश नेताओं एवं कन्वेंशन में आए हुए प्रतिनिधियों का आभार व्यक्त करते हुए सम्मेलन के समापन की घोषणा की।