इंसाफ…भ्रष्टों पर बहार

विचार—विमर्श

बहके अल्हड़ माहौल मे आज
अजीब ये मानवता का नाता है
हर तरफ फैली ये दरिंदो का राज
अब सबको रोना आता है !!

इस कदर हावी हो गई है खुदगर्जी
आदमी, आदमी को ही चबाता है
सोचकर भी वह अपना केवल
गान स्वार्थ के ही गाता है !!

भूखा सो गया वो नन्हा मासूम
छप्पन भोग ईश्वर को लगाता है
अधूरी रह गई सपने इनकी
कचरों की ढेर मे, बस भूख की रोटी नजर आता है !!

हर सुबह होते एक्सीडेंट, मर्डर, क़त्ल
दानवो की भांति, मानव अपना जीवन बनाता है
खटखटाती है उन अदालतों के दरवाजे
सच, सच को देखता रह जाता है !!

कितनी चुनौती पर महा गठबंधन
सौ पर एक ही फैसला आता है
देख जरा इन नजरों को
इंसाफ, इंसाफ कहाँ मिल पाता है !!

ना ईश्वर, अल्लाह, ना पैगम्बर
इन्हे कहाँ हमारा सच नजर आता है
भटक जाते है लोग तरक्की के जंगल मे
भ्रष्टों पर बहार, इंसाफ ताकता रह जाता है !!


राज कुमारी
गोड्डा, झारखण्ड

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