आकांक्षा

विचार—विमर्श

नहीं चाहती उड़ उड़ कर नभ को छू लूं,इतराऊं मैं
नहीं कामना महादेव बन,घर घर पूजी जाऊं मैं
मुझे चाह बस,माटी हूं तो,माटी हीं रह जाऊं मैं

कभी न चाहा बनके पिंडियां,देवी मैं कहलाऊं
रोली,अक्षत फूल कभी,अपने सिर पर चढ़वाऊं
हां,जरूर चाहूं ,किसान के खेतों में मुस्काऊं मैं

मैं अपनी छाती पर हल, कुदाल को चलते देखूं
अपनी फसलों से हर भूखे, पेट को पलते देखूं
ऊसर कहे न कोई इतना,उपजाऊं हो जाऊं मैं

गर्व मुझे होता कुम्हार की चाक पे जब मैं नाचूं
दीपक बनकर नव प्रकाश के दोहे, कविता बांचूं
हाथ लात से गूंथे वो,फिर भी पुलकित हो जाऊं मैं

मेरी गोद में हर महान का होता आया,पालन
सबके हित,होता समान मेरी लोरी का गायन
पंचतत्व में से हूं एक,सुनकर अतिशय सुख पाऊं मैं

नहीं चाह चंदन बनके,उन्नत ललाट पर सोहूं
बनूं सजावट का सामान,सजूं सबका मन मोहूं
एक मात्र आकांक्षा,सबसे, माटी मां कहलाऊं मैं।

-डॉ गोरख प्रसाद मस्ताना
वरिष्ठ कवि
बेतिया, बिहार

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